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________________ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० ५८९ अन्वयार्थः - आर्द्र को गोशालकायोत्तरयति - हंहो गोशालक ! नाऽहं कमपि निन्दामि अपि तु माध्यस्थ्य मास्थाय निर्मलदृष्टचा वस्तुस्थिति निरूपयामि । ते दार्शनिकाः स्वमतं पुष्णन्त स्तुष्यन्तो निन्दन्ति परान् तदायशास्त्रान्तःपाति तत्कथनमेव दर्शयामि । तदुक्तम् हँसी करते हैं 'उ-तु' किन्तु 'गरहमाणा - गर्हमाणा:' निन्दा करते हुए 'अक्खति - आख्यान्ति' वे कहते हैं कि 'सतो य अस्थि-स्वतश्चास्ति' मेरे दर्शन में प्रतिपादित अनुष्ठान से ही धर्म और मोक्ष होता है 'असतोय नत्थि - अस्वत व नास्ति' दूसरों के दर्शनों में कथित अतु ष्ठान से धर्म अथवा मोक्ष नहीं होता है । 'गरहामो दिट्ठि गर्हाम हे दृष्टिम्' हम उनकी उस एकान्तदृष्टि की गर्दा करते हैं पदार्थ सत् ही है या नित्य ही है, इत्यादि एकान्तवादकी निन्दा करते है । इसके सिवाय और क्या कहते है ? जो भी कोई एकान्त दृष्टि का अवलम्बन करके वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करता है, उसका प्रतिपादन यथार्थ नहीं हैं । ऐसा हम कहते हैं । 'ण गरहामो किंचि-न गहमहे किञ्चित्' इसमें किसी की निन्दा नहीं है ||१२|| - अन्वयार्थ - वे श्रमण और माहन एक दूसरे की निन्दा और हंसी करते हैं। वे कहते हैं कि मेरे दर्शन में प्रतिपादित अनुष्ठान से ही धर्म और मोक्ष होता है, दूसरों के दर्शनों में कथित अनुष्ठान से धर्म 'उ - तु' परंतु 'गरहमाणा - गर्हमाणाः' निहा उरता था 'अक्खंति - आख्यान्ति' तेथे हे छे - 'सतोय अस्थि- स्वतश्चास्ति' भारा दर्शनभां प्रतिपाहन रेल अनुष्ठानथी ४ धर्म भने भोक्ष थाय छे. ' असतो य णत्थि - अस्वतश्च नास्ति' ખીજાએના દનમાં કહેલા અનુષ્ઠાનથી ધર્મ અથવા મેાક્ષ મળતેા નથી. 'गरहामो दिट्ठी - गमो दृष्टिम्' अभे तेयोनी या मेअन्त दृष्टिनी निहा કરીએ છીએ. પદાથ સતજ છે, અથવા નિત્ય જ છે, વિગેરે એકાન્તવાદની નિંદા કરીએ છીએ. આ સિવાય બીજુ શું કહીએ છીએ ? જે કાઈ એકાન્ત દૃષ્ટિનું અવલમ્બન કરીને વસ્તુ સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરે છે, તેનું પ્રતિपाहन यथार्थ नथी. से प्रभारी हु उहु छ 'ण गरहामो कि' चि' - न गर्हामहे किञ्चित् मामा अर्धनी पण विहानी लाव नथी. ॥ १२॥ અન્વયા —તે શ્રમણ અને બ્રાહ્મણ પરસ્પર એક બીજાની નિંદા અને મશ્કરી કરે છે. તેઓ કહે છેકે-મારા શાસ્ત્રમાં પ્રતિપાદિત કરેલ અનુષ્ઠાનથી જ ધર્મ અને માક્ષ થાય છે. ખીજાઓના શાસ્ત્રોમાં કહેલા અનુષ્ઠાનેથી ધર્મ શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006308
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages795
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size43 MB
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