SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 595
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थ:--पुनराई को मुनिः पाह-वीजाधुपभोगकारिणां साधुत्वं पतिविध्याऽत्र साधकाऽभावान् दर्शयन् बाधकमपि ब्रूते । (सियाय) स्याच (बीयोदगइत्थियाओ) बीजोदकस्त्रियः बीजं शीतोदक तथा-स्त्रियः (पडिसेवमाणा) प्रतिसेवमानाः, एतेषां सेवनकर्तारोऽपि (समणः) श्रमणा:-साधवो भवन्तु तैः किमपराद्धम् । (ते वि) ते-गृहस्था अपि (तहप्पगारं) तथाप्रकार-शीतोदकादिकम् (सेवंति उ) सेवन्ते एव, यदि शीतोदकादिसेवनकर्तारः साधवो भवेयु स्तदा गृह. स्था अपि साधवः स्युः । यत उभयोरपि असेन्यसेवनस्य समानत्वात् । अतो भवसिद्धान्तसिद्धसाधुत्वपरिभाषा न समोचीना, गृहस्थेऽपि तस्याः सत्त्वात् ।९। ॥ टीका-सुगमा ।।९॥ सेवन करने वाला भी 'समणा-श्रमणाः' यदि साधु हो सकता है, तो गृहस्थों ने क्या अपराध किया है ? अर्थात् उन्हें भी साधु क्यों न मान लिया जाय ? 'ते वि-ते अपि' वे भी 'तहप्पगारं-तथाप्रकारम्' सचित्त जल आदि का सेवंति उ-सेवन्ते एव' सेवन करते हैं। जब सचित्त जल और स्त्रीका दोनों ही सेवन करते हैं, तो साधु आर गृहस्थ में अंतर ही क्यारहा ऐसा मानने पर तो सब गृहस्थ भी साधु ही कहलाएंगे क्योंकि वह युक्ति, गृहस्थ में भी घटित होती है ।९। अन्वयार्थ-आईक मुनि बीज आदि का सेवन करने वालों की साधुता का निषेध करके अब उस मत में बाधकयुक्ति दिखलाते हैंसचित्त बीज, सचित्त जल और स्त्रियों का सेवन करने वाले भी यदि साधु हो सकते हो तो गृहस्थों ने क्या अपराध किया है ? उन्हें भी साधु क्यों न मान लिया जाय ? वे भी सचित्त जल आदि का सेवन श्रमणाः' ने साधु पनी शत। डाय, तो स्याये म५२५ ये छ ? अर्थात तमान ५५॥ साधु भ न मानवा ? 'तेवि-तेऽपि' ते ५ 'तहप्प. गार-तथाप्रकारम्' सथित्त पाणी विरेनु सेवंति उ-सेवन्ते एव' सेवन કરે જ છે. જ્યારે સચિત્ત પાણી અને સ્ત્રિયોનું સેવન આ બને કરે છે, તે પછી સાધુ અને ગૃહસ્થમાં શું ફરક છે? આમ માનવાથી તે બધા ગ્રહો પણ સાધુ જ કહેવાશે. તેથી જ આપે સાધુની જે વ્યાખ્યા કરી છે, તે બરે. બર નથી. કેમકે તે ગૃહસ્થામાં પણ ઘટે છે. ગાલા અન્વયાર્થ–આદ્રક મુનિ બીજ વિગેરેનું સેવન કરવાવાળાના સાધુપણ નિષેધ કરીને હવે તે મતના ખંડનની યુક્તિ બતાવે છે.–સચિત્ત બીજ સચિત્તજલ અને સ્ત્રિનું સેવન કરવાવાળા પણ જે સાધુ થઈ શકતા હોય તે ગૃહસ્થોએ શું અપરાધ કર્યો છે? તેઓને પણ સાધુ કેમ શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૪
SR No.006308
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages795
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size43 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy