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समयार्थचोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ५७५ तदुक्तम्-रागद्वेषो विनिर्जित्य किमरण्ये करिष्यसि ।
अथ नो निर्जितावेतौ किमरण्ये करिष्यसीति ।गा० ४॥ मूलम्-धम्मं कहतस्स उत्थि दोसी,
खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स। भासा य दोसे य विवज्जगस्त,
गुंणे य भासा य णिसेवगस्स ॥५॥ छाया-धर्म कथयतस्तु नास्ति दोषः क्षान्तस्य दान्तस्य जितेन्द्रियस्य ।
भाषायाः दोषस्य विवर्जकस्य गुणश्च भाषाया निषेवकस्य ॥५॥ निष्ठ होने के कारण जनसमूह से घिरे होने पर भी एकाकी हैं। उनके लिए दोनों अवस्थाएँ समान हैं। कहा भी है-'रागद्वेषौ विनिर्जित्य' इत्यादि।
'यदि राग और द्वेष पर विजय प्रास करलिया है तो अरण्य में जाकर क्या करेगा? और यदि रागद्वेष नहीं जीते हैं तो भी जंगल में चले जाने से क्या लाभ ? ॥४॥ 'धम्मं कहंतस्स' इत्यादि।
शब्दार्थ-'धम्म-धर्म' श्रुत चारित्र धर्मका 'कहं तस्स-कथयतः' उपदेश देनेवाले को 'दोसो णस्थि-दोषो नास्ति' कोई दोष नहीं होता। क्यों कि-'खंतस्य-क्षान्तस्य' क्षान्त क्षमायुक्त 'दंतस्स दान्तस्य' दान्न 'जिइंदियस्स-जितेन्द्रियस्य' जितेन्द्रिय 'य-च' और 'भासाय दोसे विव. ज्जगस्स-भाषायाः दोषविवर्जकस्य' भाषा के दोषों को छोडकर 'भासाહવાથી જનસમૂહથી ઘેરાયેલા હોવા છતાં પણ એકલા જ છે. તેઓને બને अस्थाये। सभी छ. उयु ५ छ है- 'रागद्वेषौ विनिर्जित्य' त्या
જે રાગ અને દ્રષ પર વિજય પ્રાપ્ત કરી લીધું હોય તે જંગલમાં જઈને શું કરવાનું બાકી રહે છે ? અને જે રાગદ્વેષ જીતેલ નથી તો પછી જંગલમાં જઈને શું લાભ થવાને છે? પગાકા
'धम्म कहतस्स' या
शहाथ-'धम्म-धर्म' श्रुत यास्त्रि३५ यमन 'कहतस्स-कथयतः' पहेश आपापा दोसो णत्थि-दोषो नास्ति' रोड पर होष नथी. भ'खंतस्स-क्षान्तस्य' क्षान्त-क्षमा म 'दंतस्स-दान्तस्य' हान्त तथा 'जिई दियस्स-जितेद्रियस्य' तन्द्रिय ‘य च' मने 'भासा य दोसे विवज्जगस्स-भाषायाः
શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૪