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________________ समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् ३१७ 2 न अपेक्षया धर्मबाहुल्यात् नाऽधर्मपक्षोयम् अपितु धर्मपक्ष एव गण्यते, प्राधान्येन व्यपदे ॥ भवन्तीति न्यायात् । यथा चन्द्रः किरणैरेव व्यपदिश्यते, कलङ्केन । तत्कस्य हेतोः ? किरणैः कलङ्कस्याऽभिभूतत्वात् तद्वदेतस्मिन् अपि पक्षेर्मो धर्मैरभिभूतो भवति । एवस्थ धर्मपक्षे एवान्तर्भावः । येऽल्पेच्छा अल्पपरिग्रहन्तो धार्मिकाः धर्मांनुगाः उत्तमव्रतधारकाः तेऽत्र पक्षे समाविष्टा भवन्ति । ते पुरुषाः स्थूल गणाविपातेभ्यो निवृत्ताः, अनिवृत्ताश्च सूक्ष्मेभ्यः यन्त्रपीडनादिभिर्निवृत्ताः भवन्तीदि । साम्प्रतमक्षरार्थः प्रतन्यते 'अहावरे' अथाऽपर: 'तचहस ठाणस्स' तृतीयस्य स्थानस्य 'मिस्सगस्त' मिश्रकस्य देशविरतरुप श्रावकस्य 'विभंगे' विभङ्गो विचारः 'एवमाहिज्जर' एवंवक्ष्यमाणमकारेणाऽऽख्यायते, 'इह खलु पाईणं वा४' इह खलु माच्यां वा, मती वा इत्यादिक्रमेण ज्ञातव्यम् 'संतेगइया मणुस्सा भवंति' समस्येकतयेलता होने से यह अधर्म पक्ष नहीं है, अपितु धर्मपक्ष ही गिना जाता है । प्रधानता को लेकर ही शब्द का प्रयोग किया जाता है, ऐसा न्याय है । जैसे चन्द्रमा का कथन किरणों से ही होता है, कलंक से नहीं, क्योंकि उसका कलंक किरणों के द्वारा ढक जाता है। इसी प्रकार इस पक्ष में अधर्म धर्म से अभिभूत हो जाता है, अतएव इसका धर्मपक्ष में ही अन्तर्भाव होता है । इस पक्ष में उनका समावेश होता है जो अल्प इच्छा और अल्प परिग्रह वाले, धार्मिक, धर्मानुगामी और उत्तम व्रतों के धारक होते हैं, वे पुरुष स्थूल प्राणातिपात आदि पापों से निवृत होते हैं, परन्तु सूक्ष्म पापों से निवृत्त नहीं होते । यन्त्र पीडन आदि पाप बहुल कृत्यों से भी निवृत्त होते हैं। अब शब्दार्थ लिखा जाता है " तीसरे स्थान मिश्रपक्ष- देशविरत श्रावक का विचार आगे कहे अनुसार है - इस लोक में पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशा में છે. તેથી આ પક્ષના ધ પક્ષમાંજ અંતર્ભાવ થાય છે. જે અલ્પ ઈચ્છા, અને અલ્પ પરિગ્રહવાળા, ધાર્મિક, ધર્માનુગામી અને ઉત્તમ ત્રતાને ધારણ કરવાવાળા હોય છે, તે પક્ષમાં આને સમાવેશ થાય છે. તે પુરૂષ સ્થૂળ પ્રાણાતિપાત વિગેરે પાપાથી નિવ્રુત્ત હાય છે, પર' સૂક્ષ્મ પાપાથી નિવૃત્ત નથી હાતા યન્ત્ર (ઘાણીથી પીલવુ. દળવું વિગેરે) પીડન વિગેર અધિક પાપવાળા કૃત્યથી પણ નિવૃત્ત થતા નથી. હવે શબ્દાથ બતાવવામાં આવે છે.-ત્રીજા સ્થાન મિશ્ર પક્ષ-દેશવિરત શ્રાવકના વિચાર આગળ કહ્યા પ્રમાણે છે. આ લેકમાં પૂર્વ, પશ્ચિમ દક્ષિણ શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006308
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages795
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size43 MB
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