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________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे तथा 'अणाविले' अनाविलः रागद्वेषादिकालुष्यरहितः अतएव 'अणाउले' अनाकुल:-विषयेषु-अपवर्तनात् स्वस्थचित्तः । तथा-'सया' सदा सर्वकालम् 'दंते' दान्तः इन्द्रिय नोइन्द्रियनिग्रहवान् ईदृशः पुरुषः 'अणेलिसं' अनीदृशम्-अनन्य सदृशम् 'संधि' सन्धि-कर्मविवरलक्षणं भावसन्धिम् 'पत्ते' प्राप्तो भवतीति ॥१२॥ मूलम्-अणेलिसस्स खेयन्ने णं विरुज्झिज्ज केणइ । मणसा वयसा चेव कायसा चेव चक्खुमं ॥१३॥ छाया-अनीदृशस्य खेदज्ञो न विरुध्येत केनचित् । ___ मनसा वचसा एव कायेन एव चक्षुष्मान् ॥१३॥ पापों को नष्ट कर दे। रागद्वेष के कालुष्य से रहित हो अनाकुल हो, अर्थात् विषयों में प्रवृत्ति न करने के कारण स्वस्थचित्त हो, सदा इन्द्रियों और मन को दमन करे। इस प्रकार का महापुरुष अनुपम भावसमाधि को अर्थात् कर्म विवर रूप स्थिति को प्राप्त करता है ॥१२॥ 'अणेलिसस्स खेयन्ने' इत्यादि । शब्दार्थ-'अणेलिसस्त-अनीहशस्य' अनन्य के समान संयम में 'खेयने-खेदज्ञः' जो निपुण पुरुष 'मणसा-मनसा' अंतःकरण से 'वयसा चेव-वचसा एव' वचन से 'कायसा चेव-कायेनापि' काय से भी 'केणइ-केनचित्' कोई भी प्रागी के साथ 'ण विरुज्झिज्ज-न विरु ध्येत' संयम में निपुण मुनि किसी के साथ विरोध न करे ऐसा पुरुष 'चक्खुमं-चक्षुष्मान् ' परमार्थ को जानने वाला है ॥१३॥ વિગેરે પાપનું નિવારણ કરે. રાગદ્વેષના કલુષિતપણુથી રહિત થાય, આકુળ ન થાય, અર્થાત વિષયમાં પ્રવૃત્તિ ન કરવાને કારણે સ્વસ્થ ચિત્ત થાય સદા ઈન્દ્રિ અને મનનુ દમન કરે. આવા પ્રકારના મહાપુરૂષ અનુપમ ભાવ સમાધિને અર્થાત્ કર્મ વિવર રૂપ સ્થિતિને પ્રાપ્ત કરે છે. ૧રા शहा---'अणेलिसस्स-अनीहशस्य' अनन्यनी स२ सयममा 'खेयन्ने -खेदज्ञः' निपुण अवेरे ५३५ ‘मणसा-मनसा' मत:४२णुथी 'वयसा चेववचसा एव' क्यनयी 'कायसा चेव-कायेनापि' याथी ५५ 'केणइ-केनचित्' । ५) प्राणीनी सार्थ 'ण विरुज्झिज्ज-न विरुध्येत' विरोध न ३२ सेवा पु३५ 'चक्खुमं-वक्षुषमान्' ५२माने वागाछे. ॥१३॥ श्री सूत्रकृतांग सूत्र : 3
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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