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समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. १४ ग्रन्थस्वरूपानरूपणम्
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मूलम् - भूयाभिसकाइ दुगुंछमाणे णे निव्वहे मंतपण गोंयं । ण किंचिमिच्छे मणुए पर्यासु अ साहु धम्माणि संवएजा | २०| छाया - भूताभिशङ्कया जुगुप्समानो, न निर्वहेन्मन्त्रपदेन गोत्रम् ।
न किञ्चिदिच्छेन्मनुजः प्रजासु, असाधुधर्मान्न संवदेत् ॥२०॥ अन्वयार्थः किमर्थमाशीर्वादो न वक्तव्यः ? इत्याह- (भूयाभिसंकाइ) भूताभिशङ्कया-प्राणिविनाशशङ्कया आशीर्वादः पापकर्म इति (दुगुंछमाणे) जुगुप्समानः साधु को आशीर्वाद वचन नहीं बोलने में कारण कहते हैं'भूयाभि संकाइ' इत्यादि ।
शब्दार्थ - 'भूयाभिसंकाइ - भूतानिशङ्कया' साधु, प्राणियों के विनाश की आशंका से आशीर्वाद पापकर्म है इस प्रकार से 'दुगुंछमाणे - जुगुप्समानः घृणा करके आशीर्वाद न कहे एवं 'गोयं - गोत्रम्' वाकू संयम को 'मंतरण - मन्त्रपदेन' मंत्र आदि के प्रयोग से 'ण णिव्वहे - न निर्वहेत्' निःस्सार न बनावे इस प्रकार 'मणुए - मनुजा' साधु पुरुष 'पासु - प्रजासु' प्राणियों में धर्मकथा करके 'किंचि किमपि किसी प्रकार का पूजा सत्कार आदि को 'ण इच्छे-न इच्छेत्' इच्छा न करे तथा 'असाहु धम्माणि असाधु धर्मान्' असाधु के धर्मका 'ण संवएज्जा-न संवदेत्' उपदेश न करे ॥ २० ॥
अन्वयार्थ - भूतों की अभिशङ्का से याने प्राणियों के चिराधना की आशङ्का से आशीर्वाद बोलना पापकर्म है। इस प्रकार घृणा करते हुए
साधुये आशीर्वायन न मोसवा अस हे छे. 'भूयाभिसंकाइ' त्याहि शब्दार्थ-- 'भूयाभिसकाइ भूताभिशङ्कया' साधु आयिोना विनाशनी शाथी आशीर्वाद पापड हे या प्रकारे 'दुगुंचमाणे - जुगुप्समानः' धुए। उरीने आशीर्वचन न आहे ते 'गोयं - गोत्रम्' वा सयभने 'मंतपण - मन्त्र पदेन' मंत्र विगेरेना प्रयोगथी 'ण शिव्दहे न निर्वहेतु निःस्सार न जनावे अरे 'मणुए - मनुजः' साधु ५३ष 'पयासु- प्रजासु' प्राणियोभां धर्म था श्रीने किंचि - किमपि ' अ य प्रारना पून्न सत्सार विगेरेनी 'ण इच्छे-न इच्छेत्' रिछा न रे तथा 'असाहु धम्माणि - असाधुधर्मान्' असाधुना धर्म ना 'ण संवएज्जा - न संवदेत्' उपदेश न ३ ॥२०॥
અન્યચા —ભૂતાના વિનાશની અભિશકાથી અર્થાત્ પ્રાણિયાની વિરાધનાની આશકાથી આશીર્વાદ કહેવા તે પાપકમ છે. આ રીતે ઘણા કરતા
श्री सूत्र तांग सूत्र : 3