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________________ मार्थबोधिनी टीका प्र. भु. अ. १२ समवसरणस्वरूपनिरूपणम् ૨૮૧ अन्वयार्थः - (ते) ते 'समणा' श्रमणाः - शाक्यादयः (य) च तथा ( माहजा ) माहना:- परतीर्थिका ब्राह्मणा वा क्रियावादिनः ( एवं ) एवम् - इत्थम् (अक्खंति) आख्यान्ति - कथयन्ति यत् (लोगं) लोकम् - स्थावरजङ्गमात्मकम् (समिच्च) समेत्य-स्वस्व कर्म भोक्तृत्वेन ज्ञात्वा ( तहा तहा) तथा तथा यथायथा क्रिया क्रियते तथा तथा तेन तेन प्रकारेण स्वर्गनरकादिरूपं फलं भवतीति कथयन्ति, स्थावर जंगमात्मक लोकको 'समिच्च समेत्य' अपने अभिप्रायानुसार जानकर 'तहा तहा - तथा तथा' जिस जिस प्रकार क्रिया की जाती है उस उस प्रकार स्वर्ग नरकादिरूप फल होता है ऐसा कहते हैं और जो कुछ दुःख अथवा सुख होता है वह सब जीव 'सयंकर्ड - स्वयम् कृतम्' अपने आप किया हुआ 'दुक्खं दुःखम् ' दुःख अथवा सुख का अनुभव कहते हैं 'नमकडं - नान्यकृतम्' अन्य के द्वारा अर्थात् ईश्वर अथवा कालादिकृत नहीं है उनका यह कथन युक्ति युक्त नहीं है कारण कि तीर्थंकर गणधर आदि 'विज्जाचरणं-विद्याचरणम्' विद्या- ज्ञान चरण माने चारित्र जिन का कारण है ऐसा 'पमोक्खं प्रमोक्षम् ' 'आहंस-आहुः' कहते हैं अर्थात् मोक्ष, ज्ञान और क्रिया दोनों से साध्य होता है ऐसा तीर्थकरादिकहते हैं ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ- कोई कोई श्रमण और ब्राह्मण स्थावर जंगम रूप जगत् को अपने कर्मों का फल भोगते जानकर कहते हैं कि क्रिया के अनु बाउने 'समिच्च समेत्य' पोताना अभिप्राय अभागे लगीने 'तहा तहा - तथा તથા જેજે રીતે ક્રિયા કરવામાં આવે છે, એ એ પ્રકારથી સ્વગ નરક વિગેર પ્રકારથી ફળ પ્રાપ્ત થાય છે તેમ કહે છે, અને જે કંઇ દુઃખ અથવા સુખ भजे छे, ते मधु' व 'सयं कडं - स्वयं कृतम्' पोते पोतानी भेजे पुरेसा 'दुःख' - दुखम् ' हुः अथवा सुमनो अनुभव पुरे छे. 'जन्नकडं नान्यकृतम्' અન્યના દ્વારા અર્થાત્ ઈશ્વર અથવા કાળ વિગેરેથી કરવામાં આવેલ નથી. તેઓનું આ કથન યુક્તિ સંગત નથી. કારણ કે તીર્થંકર ગણુધર विगेरे 'विज्जाचरणं - विद्याचरणम्' विद्या-ज्ञान यरशु अर्थात्, शास्त्रि नेनु ४२ छे मेवा 'पमोक्ख' - प्रमोक्षम्' मोक्षने 'आह'सु-आहुः ' डे छे. अर्थात् માક્ષ, જ્ઞાન અને ક્રિયા એ બન્ને દ્વારા સાધ્ય કરી શકાય છે. એ પ્રમાણે તીર્થંકરાદિ કહે છે. ૫૧૧૫ અન્વયાથ-કાઈ કોઈ શ્રમણુ અને બ્રાહ્મણ સ્થાવર જંગમ રૂપ જગ પાતાના ક્રર્માંના ફળને ભાગવનાર સમજીને કહે છે ફૈ-ક્રિયા પ્રમાણે જ ફળ सु० ३६ શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૩
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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