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सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:-(भिक्खू) भिक्षुः (गेहा उ निक्खम्म) गेहात-स्वगृहात्तु निष्कभ्य-प्रव्रज्य (निरावकंखी) निरवकांक्षी-जीवनेऽपि निरपेक्षः सन् (कायं विउसेज) कायं शरीरं व्युत्सृजेत्-शरीरनिष्पतिकर्मतया कायममस्वं त्यजेत् (णियाणछिन्ने) निहानछिन्नः-तपसः फलमकामयमानः (वलयाविमुक्के) वलयात्-संसारवलयात् कर्मवलयाद्वा विमुक्तः (नो जीवियं नो मरणाभिकं खी चरेज्ज) नो जीवितं नो मरणामिकांक्षी-जीवनमरणविषयकाभिलाषरहितः सन् संयमानुष्ठानं चरेत् , इति ॥२४॥
'निक्खम्भ गेहा उ' इत्यादि ।
शब्दार्थ--'गेहा उ निक्खम्म-गेहातु निष्क्रम्य' साधु घर से निकलकर अर्थात् प्रव्रज्या धारण करके 'निरावकंखी-निरवकांक्षी' अपने जीवन में निरपेक्ष होजाय 'कायं विउसेज्ज-कायं व्युत्मजेत्' तथा शरीरका व्युत्सर्गकरे ‘णियाणछिन्ने-निदानछिन्न:' और वह अपने किये हुए तप के फलकी कामना न करे 'बलयाविमुक्के-पलया. विमुक्तः' तथा संसार से मुक्त होकर 'नो जीवियं णो मरणाभिकंखी चरेज्ज-नो जीवितं नो मरणावकांक्षी चरेत्' वह जीवन और मरणकी इच्छा न रखता हुआ संयमानुष्ठान में प्रवत्त रहें ॥२४॥ ___ अन्वयार्थ--अपने गृह से निष्क्रमण करके अर्थात् दीक्षित होकर जीवनके प्रति भी निष्काम रहे, काय का उत्सर्ग करके अर्थात् शरीर ममता, संस्कार एवं चिकित्सा न करता हुआ, तप संयम के फल की इच्छा न करता हुभा निदानरहित संसार के या कर्म के चक्र से विमु.
'निक्खाम गेहा उ' या
Avat:-गेहा उ निक्खम्म-गेहात्तु निष्क्रम्य' साधु ३२था नाइजीन अर्थात् प्रन्यानो स्वी॥२ ४शने 'निरावकंखी-निरवकांक्षी' पाताना तनी अपेक्षा २हित मनी ४ मे 'काय विउसेज्ज-काय' व्युत्सृजेत्' तथा शरीरने। युत्सम त्या ४२. "णियाणछिन्ने-निदानछिन्नः' तम तया पाते ४२॥ तपना जनी ४२ रे 'वलयाविमुक्के-वलयाद्विमुक्तः' तथा ससारथी भुत मनाने 'नो जीविय णो मरणाभिकंखी चरेज्ज-नो जीवितं नो मरणावकांक्षी चरेत्' ते જીવન મરણની ઈચ્છા રાખ્યા વિના સંયમના અનુષ્ઠાનમાં જ પ્રવૃત્ત રહેવું ૨૪
અન્વયાર્થ–પિતાના ઘેરથી નીકળીને અર્થાત્ દીક્ષિત થઈને પિતાના જીવન પ્રત્યે પણ નિષ્કામ રહેવું. શરીરને ઉત્સર્ગ કરીને અર્થાત્ શરીરની મમતા, શારીરિક સંસ્કાર તથા ચિકિત્સા કર્યા વિના અને તપ કર્યા વિના નિદાન
श्री सूत्रतांग सूत्र : 3