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समयार्थबोधिनी टीका प्र.शु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४९१ मूलम्-से पव्वए सदैमहप्पगासे विरायती कंचणमहवन्ने।
अणुत्तरे गिरिसु य पवदुग्गे गिरिवरे से जलिए व भोमे॥१२॥ छाया-स पर्वतः शब्दमहाप्रकाशो विराजते काञ्चनमृष्टवर्णः ।
___अनुतरो गिरिषु च पर्वदुर्गों गिरिवरः स ज्वलित इव भौमः ॥१२॥
अन्वयार्थः-(से पन्चए) स पर्वतो मेरुः (सदमहप्पगासे) शब्दमहामकाश:शब्दै महान् प्रकाशः-प्रसिद्धि यस्य सः (कंचणमट्ठबन्ने) काञ्चनमृष्टवर्ण:-धर्षित सुवर्णवद्वर्णवान् (अणुतरे) अनुत्तर-सर्व प्रधानः (चिरायती) विराजते-शोभते, (गिरिसु य पचदुग्गे) गिरिषु च पर्व दुर्ग:- पर्वभि मेखलादिभिः दुरारोहा
'से पच्चए' इत्यादि।
शब्दार्थ-'से पचए-स पर्वतः' वह पर्वत 'सहमहपगासे-शब्द महाप्रकाशः' अनेक नामों से अति प्रसिद्ध है 'कंचणमट्ठवण्णे-काश्चनमृष्टः वर्ण: घर्षितसुवर्ण के जैसा शुद्ध वर्णवाला 'अनुत्तरे-अनुत्तरः सब पर्वतों में श्रेष्ट 'विरायती-विराजते' और सुशोभित है 'गिरिसु य पव्वदुग्गेगिरिषु च पर्वदुर्ग.' वह सभी पर्वतों में उपपर्वतों के द्वारा दुर्गम है 'से गिरिवरे-असौ गिरिवर' वह पर्वत श्रेष्ट 'भोमेव जलिए-भौमइव ज्व. लित:' मणि और औषधियों से प्रकाशित भूप्रदेश के जैसा प्रकाशित रहता है ॥१२॥ ___ अन्वयार्थ-सुमेरु पर्वत शब्दों से महान् प्रकाश वाला अर्थात् प्रसिद्ध है। सुवर्ण के समान वर्णवाला है । सर्वश्रेष्ठ होकर शोभायमान
'से पव्वए' त्यादि
शार्थ -'से पठवए-स पर्वतः' ते ५१ त 'सहमहापगासे-शब्दमहाप्रकाशः' भने नामाथी अत्यंत प्रसिद्ध छे 'कंचण मढवण्णे-काश्चनमृष्ठवर्णः' पबित सोना स२॥ शुद्ध पाणी 'अणुत्तो-अनु तरः' मा ४ ५ i Gत्तम 'विरायतीविराजते' मने सुशामित छे. 'गिरिसु य पव्वदुग्गे-गिरिषु च पर्वदुर्गे' ते मधात
wi S५५'त२ म छे. 'से गिरिवरे-असौ गिरिवरः' परत श्रेष्ठ 'भोमेश जलिर-भौंम इव ज्वलितः' मणि अने भोषाधियोथी प्रोशित ભૂપ્રદેશ સર પ્રકાશિત રહે છે. જે ૧૨ .
સૂવા–તે સુમેરુ પર્વત અનેક શબ્દ (નામે) વડે સુપ્રકાશિત (પ્રખ્યાત) છે. સુવર્ણના જેવાં વર્ણવાળે છે અને સર્વશ્રેષ્ઠ પર્વત રૂપે સુવિ
શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર: ૨