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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् अपि चमूलम्-तहिं च ते लोलणसंपगाढे गाढं सुतत्तं अगणिं वयंति। ने तत्थ सायंलहती भिंदुग्गे अरहियाभि तावा तेहवी तविति।१७। छाया-तस्मिंश्च ते लोलनसंप्रगाढे गाढ सुतप्तमग्नि वनन्ति । न तत्र सातं लभन्तेऽभिदुर्गेऽरहिताऽभितापान् तथापि तापयन्ति ॥१७॥ अन्वयार्थः-(लोलणसंपगाढे) लोलनसंप्रगाढे-नारकजीवानां चलनेन व्याप्ते (तहिं) तत्र नरके (गाढं) गाढं अत्यर्थम् (मुतत्त) सुतप्तम् (अगणि वयंति) ही अनुभव करते हैं । उन्होंने जितने काल की स्थिति वाला कर्म बांधा है, उतने काल तक वहीं रहकर दुःखों का अनुभव करते हैं । १६॥ और भी कहते हैं-- शब्दार्थ--'लोलणसंपगाढे-लोलनसंप्रगाढे' नारक जीवों के चलन से व्याप्त तहि-तत्र' उस नरक में गाढं-गाढम्' अत्यन्त 'सुतत्तं-सुतप्तम्' तपी हुई 'अगणिं बयंति-अग्नि व्रजन्ति' वे नारक जीव अग्नि के पास जाते हैं 'अभिदुग्गे तस्य-अभिदुर्ग तत्र' उस अतिदुर्गम अग्नि में जलते हुए वे 'सातं न लहती-सातं न लभन्ते' सुख नहीं पाते हैं और 'अरहियाभितावा-अरहिताऽभितापान' यद्यपि वे महाताप से तप्त ही हैं 'तहवि-तथापि' तो भी 'तविति-तापयन्ति उन्हें तप्त तैल और अग्नि में तपाते हैं ॥१७॥ ___अन्वयार्थ--नारक जीवों के चलने से व्याप्त उस नरक में, शीत से पीड़ित होकर वे नारक अत्यन्त तप्त अग्नि के समीप जाते हैं। રહે છે. તેમણે જેટલા કાળની સ્થિતિવાળું કર્મ બાંધ્યું હોય છે, એટલા કાળ સુધી ત્યાં જ (નરકમાં જ) રહીને તેઓ દુઃખનું વેદન કરે છે. ૧દા વળી સૂત્રકાર તેમનાં દુઃખનું વર્ણન કરતા કહે છે शाय- 'लोलणसंपगाढे-लोलनसंप्रगाढे' ना वोनयथा यात 'तहि-तत्र' ते न२४भा 'गाढ-गाढम्' अत्यन्त 'सुतत्तं सुतप्तम्' तपथी तपसी 'अगणिं वयंति-अग्नि व्रजन्ति' ते ना२४ ७१ जना पासे काय छे अभिदागे तत्थ-अभिदुर्गे तत्र' त मति हुस मनिभi india 'सातं न लहती-सातं न लभन्ते' सुप पामता नथा भने 'अरहियाभितावा-अरहिताभितापन' ने ते महातापया तपसा डाय छे 'तहवि-तथापि' तो पर 'तविति-तापयन्ति' तमने तत भने मनमा तपा छे. ॥१७॥ સૂવા–નારક જીના હલન ચલનથી યુક્ત તે નરકમાં, જ્યારે નારકેને અત્યન્ત શીતને અનુભવ થાય છે, ત્યારે તેઓ તેનાથી બચવા શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૨
SR No.006306
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages728
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size40 MB
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