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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५५५ अन्वयार्थ:(धम्मस्स) धर्मस्य श्रुतचारित्रभेदभिन्नस्य (पारए) पारगः सिद्धान्तपारगामी चारित्रानुष्ठायी वा (आरंभस्स) आरंभस्य सावधव्यापारस्य (अंतए) अन्तेपर्यन्ते बहिः (ठिए) स्थितः (मुणी) मुनिर्भवति (ममाइणो) ममतावन्तः पुरुषाः (सोयंति य) शोचंति च (णिय) निज-स्वकीयम् (परिग्गहं) परिग्रहम् धनधान्यादि भृतं पुत्रादिकं वा (णोलभंति) नोलभंते न प्राप्नुवन्तीत्यर्थः ॥ ९ ॥ ____ अब श्रुतचारित्रात्मक भेद से भिन्न स्वधर्मका सूत्रकार उपदेश करते हैं - धम्मस्स ये' इत्यादि शब्दार्थ-'धम्मस्स--धर्मस्य' श्रुतचारित्ररूप धर्मका 'पारए-पारगः' सिद्धान्त में पारगामी अर्थात् चारित्रका अनुष्ठान वाला एवं 'आरंभस्स-आरंभस्य' सावध व्यापार के 'अंतए-अन्तके:' अंतमें 'ठिए-स्थितः' स्थित पुरुष 'मुणी-मुनिः' मुनि कहलाता है 'ममाइणो-ममतावन्तः 'ममता वाले पुरुष 'सोयंति य-शोचन्ति च' शोक करते हैं 'णिय-निजम्' अपने 'परिग्गह-परिग्रहम् परिग्रह को 'णो लब्मंति-नो लभन्ते' नहीं प्राप्त करते हैं ॥९॥ -- अन्वयार्थ -- शुत और चारित्रके भेद से भिन्न धर्मका पारगामी अर्थात् सिद्धान्त में पारंगत तथा चारित्रका अनुष्ठान करने वाला और आरंभ से परे स्थित पुरुष ही मुनि होता है अर्थात् आरंभरहित मुनि होता है । ममतावान् पुरुष अपने धन धान्य या पुत्रादि रूप परिग्रह के लिए शोक करते हैं, परन्तु उन्हे प्राप्त नहीं कर सकते ॥ ९॥ वे श्रुतयारत्र ३५ सेहवाणा स्वधमनी सूत्रा6पहेश छ "धम्मस्स य” त्याह शार्थ - 'धम्मस्स-धर्मस्य श्रुतयरित्र३५ घना 'पारए-पारगः सिद्धांतभा पार भाभी अर्थात् यारित्रना अनुष्ठानवा मेवम् 'आरंभस्स-आरंभस्य' सावध व्यापारना 'अंतए-अन्तकः' अतिम ठिए-स्थितः' स्थित ५३५ 'मुणी-मुनिः' भुनि वाय छ, 'स. माइणो-ममतावन्तः' ममतावाणो ५३५ सोय तिय-शोचन्ति च' शो ४२ छ, 'णिय-निजम्' पोताना 'परिग्गह-परिग्रहम्' परियडने ‘णो लब्भति-नो लभन्ते' प्रास ४२री शता नथी. સૂત્રાર્થ શ્રત અને ચારિત્ર રૂપ ભેદવાળા સ્વધર્મને પારગામી એટલે કે સિદ્ધાન્તમાં પારંગત અને ચારિત્રનું અનુષ્ઠાન કરનાર અને આરંભથી નિવૃત્ત હોય એ પુરુષ જ મુનિ કહેવાને ગ્ય છે. મમત્વ ભાવયુક્ત પુરુષ પિતાના ધન, ધાન્ય, અથવા પુત્ર, પૌત્રાદિ રૂપ પરિગ્રહને માટે શેક કરે છે, પરંતુ તે તેમને પ્રાપ્ત કરી શક્યું નથી. છે पell શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૧
SR No.006305
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size37 MB
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