SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयायार्थबोधिनी टीका प्र. श्र.अ. १ उ. ३ देवकृतजगदितिवादिनां मतनिराकरणम् ३६९ त्यनुयायिनः 'अयाणता' अमानन्तः वास्तविकतत्वमजानानाः सन्तः 'मुसं' मृव 'वए' वदन्ति । अन्यथा स्थितं तस्वमन्यथैव प्रतिपादयन्तीति भावः ॥८॥ देवोप्तादिजगद्वादिनां मतं निराकतमाह-"सएहि" इत्यादि सएहिं परियाएहि लोयं बूया करेत्तिय । तत्तं ते ण जिाणंति ण विणासी कथा इति ॥९ -छाया"स्वकैः पर्यायै लोकमब्रुवन् कृतमिति च । तत्त्वं ते न विजानन्ति न विनाशी कदापि हि ॥९ अन्वयार्थ (सएहि) स्वकैः (परियाएहि) पर्यायैः अभिप्रायविशेषैः। (लोयं) (लोकं), वास्तविक तत्त्व को नहीं जानते हुए मिथ्या ही कथन करते हैं । वस्तु स्वरूप कुछ और है किन्तु वे और ही तरह का कहते हैं ॥ ८ ॥ अब देवकृत जगत्वादियों के मत का निराकरण करने के लिए सूत्रकार कहते हैं- "सरहिं "इत्यादि । शब्दार्थ-'सएहि-स्वकैः' अपने परियाएहिं-पर्यायैः' अभिप्राय से 'लोयं-लोकं' लोक को 'कडेत्तिय-कृतमिति' कियाहुआ 'बूया-अब्रुवन् ' कहते हैं 'ते-ते' ये 'तत्तं-तत्त्वं' वस्तु स्वरूपको ‘ण वियाणति-न विजानन्ति' नहीं जानते है यह लोक 'कयाइवि-कदाचिदपि' कभी भी 'ण विणासी-न विनाशी' विनाशशील नहीं है ॥९॥ अन्वयार्थवादी अपने अपने अभिप्राय के अनुसार जगत् को ब्रह्मा आदि के તત્વથી અજ્ઞાત હોવાને કારણે મિથ્યા કથન જ કરે છે. વસ્તસ્વરૂપ જુદા જ પ્રકારનું છે. પણ તેઓ તેમના અજ્ઞાનને કારણે ઉપર્યુક્ત માન્યતાને સાચી માને છે. ૮ હવે જગતને દેવકૃત માનનારા લોકેના મતનું ખંડન કરવામાં આવે છે – "सएहि " प्रत्याहि शहाथ--सएहि-स्वकैः' ५ 'परियापहि-पर्यायैः' अभिप्रायथा 'लाय-लोक' संसारने कडेत्तिय-कृतमिति' ४२बछेतेभ बूया-अधुन्छ 'ते-ते' तेगा तन-तत्व' पतु स्१३५ने 'ण बियाणति-न विमानन्ति' तता नथी. २ 'कयाइवि-कदाचित ध्यारे पा ‘ण विणासी-न विनाशी विनाशशील नथी. Gu - सूत्रार्थ - તે અન્ય મતવાદીઓ પિતાપિતાના મત પ્રમાણે જગતને બ્રહ્મા આદિ દ્વારા રચિત શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૧
SR No.006305
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy