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________________ २८० सूत्रकृताङ्गसूत्रे -अन्वयार्थ(जहा) यथा (परित्ताणेण) परित्राणेन (वज्जिया) वर्जिताः रहिताः सन्तः (जविगो) जविना अतिशयितवेगवन्तः इतस्ततो धावमाना इत्यर्थः, (मिगा) मृगाः इरिगाः (असंकियाई) अशङ्कितानि-शङ्कारहितान्यपि स्थानानि (संकंति) अब अज्ञानवादियों के मत का निरास करने के लिए सूत्रकार दृष्टान्त कहते हैं-"जविणो,, इत्यादि । शब्दार्थ--'जहा-यथा' जैसे 'परित्ताणेण-परित्राणेन रक्षक से 'वज्जियावर्जिताः, वर्जित 'जविणो-जविनः' वेगवाले 'मिगा-मृगाः' हरिण 'असंकियाईअशङ्कितानि' शंका विनाके स्थानों में भी 'संकंति-शङ्कन्ते' शक्ङ्गा करते हैं तथा 'संकियाई-शङ्कितानि शंका करने योग्य स्थाननों में 'असंकिणोअशङ्किनः शंकारहित होते हैं 'परिताणियाणि-परित्राणिकानि' रक्षक युक्त स्थानको 'संकंते' शङ्कमाना:-शंकास्पद मानते हुवे और 'पासिताणि-पाशितानि पाशयुक्त स्थानको 'असंकिणो-अशकिनः' शंका रहित समझते हुवे 'अण्णाण भयसंविग्गा-अज्ञानभयसंविग्नाः' अज्ञान और भयसे उद्विग्न ऐसे वे मृग 'तहिं तर्हि-तत्र तत्र' उन उन पाशयुक्त स्थानों मेंही 'संपलिंतिसंपर्यन्ते' जा फसते हैं ॥६-७॥ __ अन्वयार्थ---- जैसे त्राणसे रहित वेगवान् अर्थात्इधर उधर दौड़ते हुए हरिण शंकारहित स्थानों में शंका करते हैं और शंका के स्थानों में निःशंक होते हैं, रक्षा के डवे सूत्र४२ दृष्टान्त द्वारा अज्ञानवाहीमोना भतनु उन ४२ छे-" जविणा" त्यादि शहाथ-'जहा यथाशते 'परित्ताणेण-परित्राणेन' २२ 'वजिया-वर्जिताः' विनाना 'जाविणो-जविनः' वा 'मिगा-मृगाः' १२ । 'अस कियाई-अशङ्कितानि श। विनाना स्थानामा ५५ 'सति-शङ्कते' ।। रामेछ. तथा 'सकियाइ-शङ्कितानि' ।। ४२१॥ योग्य स्थानमा ‘असं किणो-अशङ्किनः' श विनाना रहे छ. 'परिताणियाणि-परित्राणिकानि' २१४ वा स्थान ने 'संकता-शङ्कमानाः' १२५४ भाने छे. अने पासिताणि-पाशितानि' पाशवाण स्थान भ. 'असकिणो-अशकिनः' । विनाना मानीने 'अण्णाणभयसंविग्गा-अज्ञानभयस विग्नाः' २मज्ञान भने लय था वेगवाणा मेवात भृगो तहि तहिं तत्र-तत्र' ते ते पाशवाण स्थानामा 'संपलिति-संपर्यन्ते' इस लय छे. 18--७॥ - अन्वयार्थ - જેમ કે – ત્રાણ રહિત (નિરાધાર), અહીં નહી અતિ વેગથી દોડતું મૃગ શંકા ન કરવા જેવાં સ્થળમાં શંકા સેવે છે, અને જે સ્થાને શંકા કરવાને ગ્ય છે અની પ્રત્યે નિઃશંક શ્રી સૂત્ર કુતાંગ સૂત્ર: ૧
SR No.006305
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size37 MB
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