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________________ १३६ तस्मिन्नात्मनि सूक्ष्मवादरै केन्द्रियद्वीन्द्रियत्रिचतुः पंचेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्ताद्यवस्था अनेकप्रकाराः संभवन्ति स चात्मा यद्येकान्तानित्यः स्यात्तदा केवलज्ञानोत्पादाय श्रवणमनननिदिध्यासनयम नियमप्राणायामध्यानधारणासमाधितपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानाद्यलौकिकफलसाधानानां तथा श्रमव्यापार कृषिसेवादि - इहलोकस्थफलक कर्मणां तथा प्रत्यभिज्ञानस्मरणादीनामत्यंतविलोपप्रसंगात् । अयमाशयः सर्वोऽपि प्रेक्षावान् स्वशरीराद्भिनं परलोकानुयायिन कथंचिन्नित्यं स्वात्मानमवगम्य तदनन्तरं पारलौकिकफलसाधने दानादौ प्रवर्तते यदि स प्रेक्षावान् आत्मानमेकान्तानित्यमवगच्छेत्तदा येन शरीरेण यच्छरीरावच्छिन्नेनात्मना कर्म कृतम् स सूत्रकृताङ्गसूत्रे है वह स्वभाव से अमूर्त होकर भी मूर्त्त कर्मों के साथ सम्बद्ध है । कर्म के सम्बन्ध से आत्मा में सूक्ष्म, बादर, एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रि पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्त आदि अनेक प्रकार की अवस्थाएँ होती रहती हैं। आत्मा यदि एकान्त रूप से अनित्य हो तो केवलज्ञान की उत्पत्ति के लिए श्रवण मनन, निदिध्यासन, यम नियम, प्राणायम, ध्यान, धारणा, समाधि, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान आदि लोकोत्तर फल के साधनों का तथा श्रम व्यापार कृषि सेवा आदि इहलोक सम्बन्धी फल देने वाले कर्मों का तथा प्रत्यभिज्ञान एवं स्मरण आदि का सर्वथा लोप ही हो जाएगा । तात्पर्य यह है कि सभी बुद्धिमान् जन आत्मा को अपने शरीर से भिन्न तथा परलोक में जाने वाला कथंचित् नित्य जान कर ही पारलौकिक फल के साधन दान आदि में प्रवृत्ति करते हैं । अगर वह बुद्धि मान् आत्मा को एकान्त अनित्य समझते तो जिस शरीर के द्वारा, जिस નથી. તે સ્વભાવથી જ અમૂર્ત હોવા છતાં પણ મૂર્ત કર્મોની સાથે સબદ્ધ છે. કના संबंधने सीधे ४ आत्माभां सूक्ष्म, माहर, मेडेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, यतुरिन्द्रिय, પંચેન્દ્રિય, પર્યાપ્ત, અપર્યાપ્ત આદી અનેક પ્રકારની અવસ્થાએ ના સદ્ભાવ રહ્યા જ કરે છે. આત્મા જો એકાન્તતઃ અનિત્ય હાય, તેા કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિને માટે શ્રવણ, મનન, નિદિધ્યાસન (वारंवार स्मशशु) यम, नियम, आणायाम, ध्यान, धारणा, समाधि, तप, स्वाध्याय अने ઇશ્વર પ્રણીધાન આદી લોકોત્તર ફળનાં સાધનાના તથા શ્રમ, વ્યાપાર, કૃષિ, સેવા આદિ આલાક સંબંધી લ દેનારા કર્માંના તથા પ્રત્યભિજ્ઞાન અને સ્મરણ આદિના સર્વથા લાપ જ થઈ જાત. આ કથનને ભાવાથ એ છે કે સઘળા બુદ્ધિમાન માણસો આત્માને પેાતાના શરીરથી ભિન્ન તથા પરલેાકમાં જનારો અને નિત્યાનિત્ય માનીને જ પારલૌકિક ફળનાં साधनामां (हानाट्ठीभां) प्रवृत्त रहे छे. ले तेथे। आत्माने अन्ततः अनित्य न मानता होत, શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૧
SR No.006305
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size37 MB
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