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________________ भमप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० १ अ. १३ परक्रियानिषेधः ९७१ कारये दित्यर्थः ‘से सिया परो' तस्य-भावसाधोः स्यात् - कदाचित् परो-गृहस्थः 'अच्छि मलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा' अक्षिमलं वा नेत्र विकारभूतं मलं 'कांची' कर्ण मलं वाश्रोत्रविकार भूतं मलं (गुञ्जी ) दन्तमलं वा 'नहमलं वा' नखमलं वा 'नीहरिज्ज वा विसोहिज्ज वा' निर्हरेद वा निस्सारयेत , विशोधयेद वा-विशोधनं कुत्तहि 'नो तं सायए नो तं नियमे' नो तम्-नेत्रा दिमलं निस्सारयन्तं गृहस्थम् आस्वादयेद् मनसा अभिलषेत् नो वा पसीना वगैरह का प्रोग्छन और विशोधन परकिया विशेष होने से कर्मबन्धनों का कारण माना जाता है इसलिये गृहस्थ श्रावक के द्वारा किये जानेवाले साधु शरीर के स्वेद पसीना को पोछने के लिये प्रेरणा नहीं करनी चाहिये क्योंकि कर्मबन्धनों से छुटकारा पाने के लिये दीक्षा और प्रव्रज्या को स्वीकार करने वाले जैन मुनि महात्मा को गृहस्थ श्रावक को इस के लिये अनुमति नहीं देनी चाहिये, और संयम को विराधना भी होगी इसलिये संयम पालन करनेवाले जैन साधु को गृहस्थ श्रावक को तन मन वचन से इस का निषेध करके स्वयं अपने शरीर से स्वेद पसीना वगैरह को पोंछ लेना चाहिये। ____अब प्रकारान्तर से भी जैन साधु को गृहस्थ श्रावक के द्वारा आंखों के नखों के दातों तथा कानों के मलों को दूर करना परक्रिया विशेष होने से ठीक नहीं है इसलिये उस को मना करते हैं-'से सिया परो कार्यसि अच्छिमलं वा' उप्त पूर्वोक्त जैन साधु के शरीर में अक्षिमल को अर्थात् काँची को तथा 'कण्ण मलं वा' कर्ण मल को अर्थात् गुञ्जी को एवं 'दंतमलं वा' दंतमल को एवं 'नहः मलं वा' नखमल को यदि गृहस्थ श्रावक 'नीहरिज वा, विसोहिज वा' निकाले या विशोधन करें अर्थात् अक्षि आंख वगैरह के मलों को निकाल कर साफ થયેલ પરસેવા વિગેરેનું પ્રેઝન અને વિશે ધન પર કિયા વિશેષ હેવાથી કમબંધનું કારણ માનવામાં આવેલ છે. તેથી સાધુના શરીરમાંના પરસેવાને લૂછવા માટે ગૃહસ્થ શ્રાવકને પ્રેરણા કરવી નહીં. કેમકે કર્મબંધથી છૂટવા માટે દીક્ષાને સ્વીકાર કરવાવાળા સાધુએ ગૃહસ્થ શ્રાવકને પિતાના શરીરમાંના પરસેવા વિગેરેને લૂછવા અનુમતિ આપવી નહીં. કારણ કે તેમ કરવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે તેવી સંયમનું પાલન કરવાવાળા સાધુએ ગૃહસ્થ શ્રાવકને તન મન અને વચનથી તેને નિષેધ કરી પિતે પિતાના શરીરના પરસેવા વિગેરેને લુછી લેવા. હવે સાધુએ ગૃહસ્થ શ્રાવક પાસે આંખના કે નાના, કે દાંતના અથવા કાનના મેલને ન કઢાવવા વિષે સૂત્રકા૨ કથન કરે છે.– ‘से 'परो कायंसि अच्छिमलं' ते पूर्वोत साधुना शरीरमाथा मोना भेसने २५५१ 'कण्णमलं वा' ।नना भेजने दंतमलं वा' kiतना भेसने १५१। 'नहमलं वा' नमन मेलने शृ७५ श्राप४ पासे 'नीहरिज्जवा' ४ावे ! 'विसाहिज्जवा शायन ४२वे मात मांग श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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