SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 971
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारांगसूत्रे परो कायसि' तस्य-साधोः स्यात-कदाचिद् यदि परो गृहस्थः काये-शरीरे 'वणं वा गंडं वा अरइंवा पुलयं वा भगंदलं वा वणं वा दृष्ट्वा गण्डं वा-गण्डनामक व्रगविशेष वा (फोरा) अरति वा अरतिनामकवणविशेषं अर्शः इति प्रसिद्धम् अवलोक्य, पुलकं वा-पुलकनामकं वा व्रणविशेष व्रणविस्फोटकं दृष्ट्वा भगन्दरं वा-भगन्दरनामकंवा गुह्यस्थानस्थितं व्रणविशेषम् दृष्ट्वा 'अन्न यरेणं सत्थजाएणं' अन्यतरेण अन्यतमेन वा नखच्छे इ निकाप्रभृतिना शस्त्र नातेन-शस्त्रविशेषेण भी उप्त के लिये प्रेरणा नहीं करें क्योंकि शीतोदकादि से प्रक्षालन करने में अप्कायिक जीवों की हिंसा होती है जिस से जैन साधु मुनि महात्मा को संयम की विराधना होगी इसलिये संयम पालन करनेवाले जैन साधु इस प्रकार के गृहस्थों के द्वारा व्रणादि का शीतोदकादि से प्रक्षालनादि क्रिया की अभिलाषा भी मन में नहीं करें और वचन काय से उस के लिये गृहस्थ श्रावकों को प्रेरणा भी नहीं करें। अब फिर प्रकारान्तर से जैन साधु के शरीर में अर्श आदि का गृहस्थ श्रावकों के द्वारा ओप्रेशन आदि क्रिया भी परक्रिया विशेष होने से कर्मबन्धन का कारण मानी जाती है इसलिये गृहस्थ के द्वारा इस चीरफार ओप्रेशन आदि का भी निषेध करते हैं 'से सिया परो कार्यसि वर्ण वा' उस पूर्वोक्त जैन साधु के काय अर्थात् शरीर में यदि पर अर्थात् गृहस्थ श्रावक वग को अर्थातू गुमड़ा फोडा फुन्सी वगैरह घाव को या 'गंडं चा' गण्ड को अर्थात् गलगण्ड नाम के फोरा व्रण विशेष को या ‘अरई वा' अरति अर्थात् गुहय स्थाा स्थित अर्श नाम के (बयाशीर) व्रण को या 'पुलयं वा' पुलक को अर्थात् पुलक नाम के व्रण विस्फोटक को देखकर या 'भगंदलं वा भगन्दर नाम के गुह्य स्थान के व्रण विशेष को देखकर 'अन्नयरेण सत्थजाएणं' अन्यतः अर्थात् नखच्छेदनिका (नहरनी) પણ તેમ કરવા માટે પ્રેરણા કરવી નહીં. કેમકે ઠંડા પાણી વિગેરેથી તેને ધવાથી અકાલિક જેની હિંસા થાય છે. જેથી સાધુને સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી સંયમનું પાલન કરવાવાળા સાધુએ આ પ્રમાણે ગૃહસ્થ દ્વારા ત્રણાદિનું ઠંડા પાણી વિગેરેથી છેવા વિગેરે કિયાની અભિલાષા મનથી પણ કરવી નહીં અને વચન તથા કાયાથી તેમ કરવા ગૃહસ્થ શ્રાવકને પ્રેરણા કરવી નહીં. હવે સાધુના શરીરમાં હરસ વિગેરે વ્યાધિનું ગૃહસ્થ શ્રાવક દ્વારા ઓપરેશન વિગેરે ठिया ४२वाना सूत्रा२ निषेध ४२ छ. 'से सिया परो कार्यसि वणं वा' से पूर्वात સાધુને શરીરમાં જે પર અર્થાત્ ગૃહસ્થ શ્રાવક વ્ર અર્થાત ગુમડાને કે ફલ્લા વિગેરે धान अथवा 'गंडवा' ने सेटसे 3 113 222से मानी isने अथवा 'अरई' अति अर्थात् अश (७२स) नामाना न १५१! 'पुलयं' पुस नाममा तर विशेषने asn wथवा 'भगंदलं वा' १२ नामाना शुबस्थानमा यता प्राणनेनने 'अन्नयरेण श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy