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________________ आचारांगसूत्रे ज्ज वा अभंगिज वा' म्रक्षयेद् वा-विशोधयेद् , अभ्यअयेद् वा-अभ्यञ्जनं वा कुर्यात् तर्हि 'नो तं सायए नो तं नियमे' नो तम्-म्रक्षयन्तम् अभ्यञ्जयन्तं वा गृहस्थम् आस्वादयेत्हृदयेन वान्छेत् , नो वा तम्-म्रक्षणादिकं कुर्वन्तं गृहस्थं नियमयेत्-प्रेरयेत् कायेन वचसा वाऽपि नानुमोदयेदित्यर्थः ‘से सिया परो कार्य' तस्य-भावभिक्षुकस्य स्यात्-कदाचित् परो _ अब फिर भी प्रकारान्तर से साधु के शरीर को तैलादि से मालिश करना भी परक्रिया होने से ठीक नहीं है इसलिये उस को भी मना करते हैं-'से सिया परो कायं तिल्लेण वा' उस जैन साधु के काय शरीर को यदि पर अर्थात् गृहस्थ श्रावक तैल से या 'घएण वा' धृत से अर्थात् नवनीत मक्खन से 'वसाएण वा' या वसा अर्थात् द्रव्यौषधि विशेष से 'मक्खिन्ज वा' म्रक्षण अर्थात् मालिश करे 'अभंगिज्ज वा' और अभ्यञ्जन करे तो उस को अर्थात् तैलादि से शरीर का म्रक्षण अभ्यञ्जन को जैन मुनि 'नो तं सायए' आस्वादन नहीं करें याने मन से उस की अभिलाषा नहीं करें और 'नो तं नियमे' काय वचन से भी उस वृक्षणादि क्रिया का समर्थन या अनुमोदन नहीं करें एतावता उस गृह स्थ श्रावक को वचन से या कायिक चेष्टा संकेत के द्वारा भी तैलादि से शरीर को मालिश करने के लिये प्रेरणा भी नहीं करें क्योंकि उस प्रकार के शरीर का तैलादि से म्रक्षण अभ्यञ्जन परक्रिया विशेष होने से कर्मबन्धन का कारण माना जाता है इसलिये सांसारिक सभी प्रकार के कर्मबन्धों से मुक्त होने के लिये दीक्षा या प्रव्रज्या ग्रहण करनेवाले जैन साधु को इस प्रकार के गृहस्थ श्रावक के द्वारा शरीर का तैलादि से मालिश या अभ्यञ्जन नहीं करवाना चाहिये और હવે સાધુના શરીરની તેલ વિગેરેથી માલીશ કરવી તે પરક્રિયા હોવાથી તે ન કરવા सूत्र।२ 3थन ४२ छ-'से सिया परो कार्य तिल्लेण वा' ने साधुनशरी२नी ५२ अर्थात् गृहस्थ श्रा३४ तेथी मथा 'घयेण वा' धीथी मया मामाथी 'वसाए वा' अथवा पसा से मौषधि विशेषथी 'मक्खिज्ज वा' प्रक्ष अर्थात मालीश २ मन 'अभि. કિન્ન થા’ અભંજન કરે તે તેનું અર્થાત્ તેલ વિગેરેથી શરીરમાં પ્રક્ષણ-માલીશ અને सस्य ननु साधुसे 'नो तं सायए' मारवाहन ४२ नही अर्थात् मनयी तेनी मिला। ४२वी नही. तथा 'नो तं नियमे' ४य भने क्यनयी ५ से भासी विशेष ध्यान સમર્થન કે અનુમોદન કરવું નહીં. એટલે કે એ ગૃહસ્થ શ્રાવકને વચનથી કે કાયિક ચેષ્ટા સંકેત દ્વારા પણ તેલ વિગેરેથી શરીરની માલીશ કરવા માટે પ્રેરણા પણ કરવી નહીં કેમ કે એ પ્રકારે શરીરની તેલ વિગેરેથી માલીશ કે અત્યંજન ક્રિયા પરક્રિયા વિશેષ હેવાથી કર્મબંધનું કારણ મનાય છે. તેથી સાંસારિક દરેક પ્રકારના કર્મબંધનોથી મુક્ત થવા દીક્ષા ગ્રહણ કરવાવાળા સાધુએ આ પ્રકારથી ગૃહસ્થદ્વારા શરીરની તેલ વિગેરેથી માલીશ કે અભંજન કરાવવું નહીં. અને તે કરવા માટે પ્રેરણા પણ કરવી નહીં, કેમ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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