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________________ ९४६ आचारांगसूत्रे भिक्षुकस्य स्यात् कदाचित् यदि परो - गृहस्थः कायम् - शरीरम् आमृज्याद् वा प्रमृज्याद् वा किञ्चिद् वा अधिकं वा मार्जनं कुर्यात् तर्हि 'नो तं सायए नो तं नियमे' नो तम्कायमार्जनं कुर्वन्तं गृहस्थम् आस्वादयेत् - मनसा अभिलषेत्, नो वा तम् - मार्जयन्तं गृहस्थं नियमयेत् - प्रेरयेत् - नानुमोदयेदित्यर्थः ' से सिया परो कार्य' तस्य भाव भिक्षुकस्य स्यात्कदाचित् परो - गृहस्य : यदि कायम् - शरीरम् 'लोहेण संवाहिज्ज वा पलिमद्दिज्ज वा ' का निषेध करते हैं-- 'से सिया परो कार्य आमज्जिज्ज व।' उस जैन साधु के काय अर्थात् शरीर का यदि पर अर्थात् गृहस्थ श्रावक आमार्जन करे या 'पमज्जिज वा' प्रमार्जन करे याने एक बार या अनेक बार मार्जन करे तो उस गृहस्थ श्रावक के द्वारा किये गये शरीर का मार्जन को जैन साधु 'नो तं सायए' मन से आस्वादन अर्थात् अभिलाषा नहीं करें और 'नो तं नियमे' वचन काय से भी उस का समर्थन या अनुमोदन भी नहीं करें क्योंकि उस गृहस्थ श्रावक के द्वारा शरीर का आमार्जन और प्रमार्जन क्रिया रूप परक्रिया विशेष भी कर्मबन्ध का कारण माना जाता है, इसलिये जैन साधु साध्वी को इस प्रकार के गृहस्थ श्रावक द्वारा शरीर का आमार्जनादि क्रिया नहीं करवाना चाहिये और उस गृहस्थ श्रावकादि को शरीर का आमार्जनादि के लिये प्रेरणा भी नहीं करनी चाहिये अर्थात् तन मन और वचन से उस गृहस्थ श्रावकादि के द्वारा किये जानेवाले शरीर का आमार्जनादि क्रिया रूप परक्रिया विशेष का समर्थन या अनुमोदन नहीं करना चाहिये ॥ अब गृहस्थ श्रावकादि के द्वारा किये जानेवाले लोष्ठादि द्रव्य विशेष से जैन साधु के शरीर का संवाहन और परिमर्दन रूप परक्रिया विशेष का निषेध परो कार्य आमज्जिज्ज वा' ले साधुना शरीर पर गृहस्थ श्री समर्थन ४रे अथवा 'पमज्जिज्ज वा' प्रभान मेरे अर्थात् वार हे अनेवार स्नानाहि पुरावे तो मे गृहस्थ શ્રાવકદ્વારા કરવામાં આવતા શરીરના માનની સાધુએ મનથી અભિલાષા કરવી નહીં અને વચન અને કાયાથી પણ તેનું સમન કે અનુમેદન પણ કરવું નહી. કેમ કે એ ગૃહસ્થ શ્રાવક દ્વારા સાધુના શરીરનું આમન અને પ્રમાન ક્રિયા રૂપ પરક્રિયા વિશેષ ને પણ ક`બંધનું કારણ માનવામાં આવે છે. તેથી સાધુએ આ પ્રકારના ગૃહસ્થ શ્રાવકદ્વારા કરાતી શરીરની આમનાદિ ક્રિયા કરાવવી નહી' અને એ ગૃહસ્થ શ્રાવકાદિ ને શરીરના આમનાદિ માટે પ્રેરણા પણ કરવી નહીં. અર્થાત્ તનમન કે વચનથી એ ગૃહસ્થ શ્રાવકાદિ દ્વારા કરવામાં આવતી શરીરના આમનાદિ ક્રિયારૂપ પરક્રિયા વિશેષનુ સમ ન કે અનુમેદન કરવું નહી. હવે ગૃહસ્થ શ્રાવક વિગેરે દ્વારા કરાનારા લેષ્ઠાદિ પદાથૅ વિશેષથી સાધુના શરીરના संवाहन भने परिभर्द्वन ३५ हिया विशेषना निषेधनु उथन रे छे.-' से सिया परो लोट्टेण શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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