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________________ ९४० आचारांगसूत्रे नो समर्थयेदित्यर्थः 'से सिया परो पायाई सीओदगवियडेण वा' तस्य-भावसाधोः स्यात्-कदाचित् यदि परो-गृहस्थः पादौ शीतोदकविकटेन वा-अत्यन्तशीतोदकेन 'उसि. णीओदगवियडेण वा' उष्णोदकविकटेन वा-अत्यन्तोष्णोदकेन वा 'उच्छोलिज्ज वा पहो. लिज्ज वा' उत्क्षालयेद वा-किश्चित् प्रक्षालनं कुर्यात् , प्रक्षालयेद् वा-अधिकं वा प्रक्षालनं वा कुर्यात् 'नो तं सायए नो तं नियमे' नो तम्-आक्षालयन्तं प्रक्षालयन्तं वा गृहस्थम् आस्वादयेत् मनसा नो अभिलषेत्, नो वा तम्-आक्षालयन्तं प्रक्षालयन्तं वा गृहस्थम् नियमयेत्कायेन वचसा वा प्रेरयेत्, मनसा वचसा वपुषा वा गृहस्थस्य साधुः पादप्रक्षालनक्रियां नानु___ अब फिर भी प्रकारान्तर से गृहस्थ श्रावकों द्वारा किये जानेवाले साधु मुनि महात्मा के चरणों का शीतोदकादि से प्रक्षालनादि परक्रिया को भी जैन साधु मन वचन कर्म से अनुमोदन नहीं करें यह बतलाते हैं-'से सिया परो पायाई सीओदगवियडेण वा' उस जैन साधु के चरणों को यदि कदाचितू पर अर्थात् गृहपति गृहस्थ श्रावक श्रद्धा भक्ति से अत्यन्त शीतोदक से या 'उसिणोदगवियडेण वा' अत्यन्त उष्णोदक से 'उच्छोलिज्ज वा' थोडा सा या अधिक सा 'पहोलिन वा प्रक्षालन करे तो उस शीतोदक और उष्णोदक से पादप्रक्षालन क्रिया रूप परक्रिया का 'नो तं सायए' मन से आस्वादन अर्थातू अभिलाषा जैन साधु नहीं करें और 'नो तं नियमे वचन शरीर से भी उस पाद प्रक्षालनादि क्रिया का अनुमोदन या समर्थन नहीं करें क्योंकि गृहस्थ श्रावकों के द्वारा किये जाने वाले इस प्रकार के शीतोदकादि से साधु के चरणों का प्रक्षालनादि परक्रिया कर्मबन्धन का कारण मानी जाती हैं इसलिये संसार के कर्मबन्धनों से मुक्त होने के लिये प्रवज्या या दीक्षा ग्रहण करने वाले जैन साधु मुनि महात्मा को इस प्रकार के शीतोदकादि से पादप्रक्षालनादि क्रिया रूप परक्रिया को मन - હવે ગૃહસ્થ શ્રાવકે દ્વારા કરવામાં આવતા ઠંડા પાણીથી સાધુઓના પગોનું પ્રક્ષાલન વિગેરે પરકિયાનું સાધુએ મન વચન અને કર્મથી, અનુમોદન ન કરવા વિષે કથન ४२ छ ‘से सिया परो पायाइं सीओदगवियडेण वा' साधुना यान ने आय ५२ मात् १७२५१४ श्रद्धा माहिती अत्यंत पोथी अथवा 'उसिणोदगवियडेण वा' अत्यात १२ पायीथी 'उच्छोलिज्ज वा पहोलिज्ज वा' या धारे धुवे तो 22 81. पाणीथी , गरम पाणीथी गोवा३५ ५२ध्यिानु 'नो त सायए' भनथी भावान मर्थात ४२७ भुनिये ४२वी नही अने 'नो तं नियमे' क्यनयी है शरीरथी ५y એ પાદપ્રક્ષાલનાદિ ક્રિયારૂપ પરક્રિયાનું અનુમદન કે સમર્થન કરવું નહીં. કેમ કે-ગૃહસ્થ શ્રાવકે દ્વારા કરવામાં આવતી આ પ્રકારની ઠંડાપાણિ વિગેરેથી સાધુના પગધેવારૂપ પરકિયા કર્મબંધનું કારણ મનાય છે. તેથી સંસારના કર્મબંધનથી મુક્ત થવા માટે દીક્ષા ગ્રહણ કરવા વાળા મુનિમહારાજે આ પ્રકારના ઠંડાપાણી વિગેરેથી પગધવા વિગેરે રૂપ ક્રિયા श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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