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________________ प्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू. ३ अ. ११ शब्दासक्तिनिषेधः ९१५ नो विचारयेदित्यर्थः - 'से भिखू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'जाव सुणेइ' यावत् यथा वा एककान् - शब्दान् शृणोति 'तं जहा - कलहाणि वा डिंबाणि वा ' कलहान् परस्पर कलह प्रयुक्तशब्दान्, डिम्बान् वा - स्वराष्ट्रचक्रे राज्ञां परस्परविरोधशब्दान् 'डमराणि लीला रामलीला वगैरह के स्थानों में झाल मृदङ्ग पखाउज ढोल पिपही नाना प्रकार के बाजाओं बजाये जाने से उत्पन्न शब्दों को सुनने से संयमशील साधु और साध्वी को शब्द विशेष को सुनने की आसक्ति बढ़ जाने से संयम की विराधना होगी क्योंकि सांसारिक विषयों की ओर अधिक आकर्षण से तपश्च यदि पूर्वक सामायिक वगैरह करने में मन नहीं लगेगा और संयम का पालन भी नहीं हो सकेगा इसलिये संयम पालन करनेवाले मुनि महात्माओं को इस प्रकार के आख्यायिका वगैरह के शब्दों को नहीं सुनना चाहिये और उन आख्यायिक कथानक वगैरह स्थानों में उन वैषयिक शब्दों को सुनने के लिये उपाश्रय से बाहर कभी भी जाने का मन में संकल्प या विचार भी नहीं करना चाहिये, अब फिर भी प्रकारान्तर से कलह झगड़ारगड़ा एवं स्व राष्ट्रपरराष्ट्र वगैरह में कूटनीति राजनीति वगैरह के शब्दों को भी नहीं सुनना चाहिये यह बतलाते हैं-' से भिक्खू वा भिक्खुगी वा जाच सुणे' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी यावत् यदि वक्ष्यमाण रूप के शब्दों को सुने 'कलहाणि वा' जैसे कि कलह - परस्पर झगड़ा या रगड़ा मारा पिटी में उत्पन्न गाली गिलौज वगैरह बीभत्स शब्दों को या 'डिंबाणि वा' डिम्ब अर्थात् स्व राष्ट्र चक्र में राजाओं के परस्पर विरोध वाले शब्दों को अर्थात् अपने राज्य में મૃદંગ, પખાલ, ઢોલ, શરણાઇ, વિગેરે અક પ્રકારના વાજા વગાડવામાં આવવાથી થનારા શબ્દને સાંભળવાથી સાધુ અને સાધ્વીને શબ્દ વિશેષને સાંભળવાની આસક્તિ થઇ આવે છે. તેથી સયમની વિરાધતા થાય છે કેમકે સાંસારિક વિષયની તરફ આક શુ થવાથી તપશ્ચર્યા વિગેરે સામાયિક વિગેરે કરવામાં મન લાગે નહી' અને સંયમનુ પાલન પણુ થઈ ન શકે તેથી સંયમનુ પાલન કરવાવાળા સાધુએ આવા પ્રકારના આખ્યાયિકા વિગેરેના શબ્દોને સાંભળવા નહીં, અને એ માખ્યાયિકા, કથાનક વિગેરે થતા હાય તેવા સ્થાનામાં થતા શબ્દેને સાંભળવા માટે ઉપાશ્રયની બહાર જવાના મનમાં સકલ્પક विचार यशु हरवो नहीं. હવે પ્રકારાન્તરથી કહે કંકાસ તથા ારાષ્ટ્ર પરાષ્ટ્ર વિગેરેમાં કૂટનીતિ, રાજનીતિ વિગેરેના શબ્દે ન સાંભળવા વિષે કથન કરે છે. 'से भिक्खु वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वेति संयमशील साधु ने साध्वी 'जाब सुणे ' यावत् ले वक्ष्यमाणु प्रारथी होने सालणे 'तं जहा ' उल्या भार पीटभां थता गाणी विगेरे मीलत्स शब्होने नेवा - 'कलहाणि वा ' લસ अथवा डिंबाणि वा' डिं શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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