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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. १ सू. १ अ. १० उच्चारप्रस्रवणविधेर्निरूपणम् ८६७ णि वा हरितानि वा फलानि वा 'अंतराओ वा बाहिं नीहरंति' अन्तरतो वा बहिनिहरन्तिनयन्ति 'पहियाओ वा अंतो साहरंति' बाबतो वा अन्तः समाहरन्ति-आनयन्ति तहिं 'अन्नयरंसिया तहप्पगारंसि थंडिलंसि' अन्यतरस्मिन् वा-अन्यस्मिन् वा तथाप्रकारे-कन्दादीनां नयनानयनक्रियायुक्ते स्थण्डिले 'नो उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा' नो उच्चारप्रस्रवणम्-मलमूत्रपरित्यागं व्युत्सृजेन्-कुर्यात् 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुको वा 'से जं पुण थंडिलं जाणिज्जा' स यत् पुनः स्थण्डिलं जानीयात्-'खंधंसि वा पीढंसि वा' अर्थात् कंदमूलों को या बीजों को या पुष्पों को या हरित हरे भरे तृण घास वगैरह को या फलों को 'अंतराओ वा बाहिं नीहरंति बहियाओ वा अंतो साह. रंति' अंदर से बाहर या बाहर से अंदर ले जा रहे हैं तो इस प्रकार के-'अण्ण. यरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि' कांदा प्याश वगैरह को नयन आनयन वाले स्थण्डिलभूमी में साधु को और साध्वी को 'नो उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा' मलमत्र परित्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि कांदा वगैरह को सजीव होने से उन सब सजीव कांदा वगैरह से सम्बद्ध स्थण्डिल में जीवहिंसा की संभावना होने से मलमूत्र परित्याग करने पर साधु को संयम की विराधना होगी, इस लिये इस प्रकार के कांदा वगैरह के यातायात वाले स्थण्डिलभूमी में मलमूत्र का परित्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि संयम का पालन करना ही संयमशील साधु और साध्वी का परम कर्तव्य समझा गया है इसलिये संयमपालन करने वाले साधु को इस प्रकार के स्थण्डिलभूमी में मलमूत्र का परित्याग नहीं करना चाहिये, फिर भी प्रकारान्तर में अन्तरिक्ष आकाश में बनाये हुए स्थण्डिलभूमी में भी मलमूत्र का परित्याग नहीं करना चाहिए यह बतलाते हैं-'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, से जं पुण थंडिलं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त भिक्षु और भिक्षुकी यदि અથવા યાવત મૂળને અર્થાત્ કંદમૂળને અગર બીજોને કે પુને અગર લીલા તૃણ ઘાસ विरेने अथ। णाने 'अंतराओ वा बाहिं नीहरंति' म४२थी महा२ मा 'बहियाओ वा अंतो साहरंति' महारथी ४२ / लय . 'अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि' तो તેવા પ્રકારના કે જ્યાં ડુંગરી વિગેરે કંદમૂલ લાવતા લઈ જવાતા હોય તેવા સ્પંડિલમાં साधु सीमे 'नो उच्चारगासवणं वोसिरिज्जा' भबभूवना त्या ५२३ नही. भ. કાંદા વિગેરે સજીવ હોવાથી એ સજીવ ડુંગળી વિગેરેથી સંબંધિત સ્થંડિલમાં જીવહિંસાની સંભાવના હોવાથી મલમૂવને ત્યાગ કરવાથી સાધુને સંયમની વિરાધના થાય છે. સંયમનું પાલન કરવું એ જ સાધુ અને સાધવીનું પરમ કર્તવ્ય મનાય છે. તેથી સંય. મનું પાલન કરવાવાળા સાધુએ આવા પ્રકારના સ્પંડિલમાં મલમૂવને પરિત્યાગ કરવો નહી ફરીથી પણ અદ્ધર આકાશમાં બનાવેલ Úડિલમાં મલમત્રને ત્યાગ ન કરવા ५.धी ४थन ४३ छ.-'से भिक्ख पा भिक्खुणी वा' yalत संयमशla साधु भय। श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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