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मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ.१ स्. १ अ. १० उच्चारप्रस्रवणविधेनिरूपणम् ८६३ 'अस्सि पडियाए बहवे समणमाहणअतिहिकिवणीमए' अस्वप्रतिज्ञया-न स्वनिमित्तं बहन श्रमणब्राह्मणअतिथिकृपणवनीपकान्-चरकशाक्यप्रभृति अनेक प्रकारकान् अन्यतीर्थिकसाधु-द्विजअभ्यागत दीनदरिद्रयाचकान् ‘पगणिय पगणिय' प्रगण्य प्रगण्य-पृथक् पृथग्र गणना पूर्वकं 'समुदिस्स' समुद्दिश्य-अभिलक्ष्य 'पाणाई भूयाइं जीवाइं सत्ताई' प्राणान्-प्राणिनः भूतानि जीवान् सत्त्वान् 'जाव उद्देसियं चेएइ' यावत्-समारभ्य, उदिश्य, ओद्देशिक स्थण्डिलं चेतयते-कुर्यात् तर्हि 'तह पगारं थंडिलं' तथाप्रकारम्-एकानेक साधूद्देशेन प्राणभूतादि समारम्भपूर्वकं निर्मितं स्थण्डिलम् 'पुरिसंतरकडं वा जाव बहिया नीहडं वा अनीहडं वा' पुरुषान्तरकृतम्-अन्यपुरुषस्वीकृतं वा यावत्-अपुरुषान्तरकृतम्-पुरुषान्तरास्वीकृतम् वा बहिर्नीतं वा बहिरनीतं वा स्यात किन्नु 'अन्नयरंसि तहप्पगारंसि थंडिलंसि' अन्यतरस्मिन्-अन्यस्मिन् वा तथाप्रकारे-एकानेक साधूद्देशेन कृते स्थण्डिले 'उच्चारपासवणं नो वोसिरिज्जा' उच्चारप्रस्त्रसाहम्मिया' अनेक साधर्मिक साधुओं को-'समुहिस्स' उद्देश करके एवं-'अस्सि पडियाए एगं साहम्मिणिं समुद्दिस्स' एक साधर्मिक साध्वीको उद्देश करके या'अस्सिं पडियाए बहवे सहम्मिणोओ समुद्दिस्स'-अनेक सार्मिक साध्वी को उद्देश करके या 'अस्सि पडियाए वहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमए' बहुत से श्रमण अन्य तीथिक साधु ब्राह्मण अतिथि-कृपण दीन गचक दरिद्र दुःखी अपाहिज -हीनाङ्ग लंगडे लूल्हे सबको 'पगणिय पगणिय समुदिस्स' निमित्त करके बनाया गया है और प्राणों भूतों जीवों और सत्वों को समा रम्भ पूर्वक उद्देश करके औद्देशिक स्थण्डिल को बनाया गया है तो ऐसा जान कर इस प्रकार के एकानेक साधु को उद्देश करके 'पाणाई भूयाई जीवाइं सत्ताई जाव' प्राण भून जीव सत्त्वों को समारम्भ पूर्वक निर्मित स्थण्डिल को पुरुषान्तर स्वीकृत होने पर भी यावतू-जो पुरुषान्तर स्वीकृत नहीं होने पर भी या बाहर व्यवहार में लाया गया है या, बाहर व्यवहार में नहीं लाया गया है, इस प्रकार के दूसरे भी एकानेक साधु के 'उद्देसियं चेएइ' उद्देश से बनाये गये स्थण्डिल माहणअतिहिकिवण वणीमए' । श्रम मन्य all: साधु ब्राह्मए) मतिथि ५५ टीन याय नि gी दूर 11 अपंग विशेरे मधाने 'पगणिय पगणिय समुहिस्स' से मेने उदेशीन -धान भित्ते मनापामा मावेस तथा 'पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई 'जाव उदेसियं चेइए' प्राय सूते', अने सत्याना समान पूर्व उद्देशान मोदशि स्थत मनास डाय तो 'तहपगारं थंडिल्लं पुरिसंतकडं जाव' मा ४२ना से अथवा અનેક સાધુને ઉદ્દેશીને પ્રાણ, ભૂત સત્વના સમારંભ પૂર્વક બનાવેલ સ્થડિલ પુરૂષાન્તર સ્વીકૃત હોય તે પણ યાવત પુરૂષાન્તર સ્વીકૃત ન હોય અથવા બહાર વ્યવહારમાં લાવેલ डाय अथवा मारना व्यवहारमindan नाय 'अन्नयरंसि तहप्पगारंसि' मावा ॥२॥ भीत ५९ मे भने साधुना देशथी मनापामा मावस 'थंडिलंसि' स्थतिमा
श्री सागसूत्र :४