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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ अ. ९ सू. १ स्वाध्यायभूमावाचरणीयानाचरणीयविधिः ८५१ रीत्या अवगच्छेत् यथा- 'सअंडं जाव संताणय' साण्डाम्-अण्डसहितां यावत्-सप्राणाम् सबीनाम् सहरिताम् सोदकाम् सोत्तिङ्गपनकद कमृत्तिकालूतातन्तुजालसन्तानयुक्तां पश्येत् तर्हि 'तहप्पगारं निसीहियं' तथाप्रकाराम्-अण्डादियुक्तो निषोधिकाम्-स्वाध्यायभूमि 'अफासुयं अणेसणिज्जं जाव' अप्रामुकाम्-सचित्ताम् अनेषणोयाम्-आधाकर्मादिदोषयुक्तां यावत्मन्यमानो लाभे सत्यपि सचित्तत्वात् आधाकर्मादिदोषयुक्तत्वाच्च नो चेतयिष्यामि-न परिनिषीधिका रूप स्वाध्याय भूमि को जानले कि-'सअंडं जाव ससंताणगं' यह निषीधिका अर्थात् स्वाध्याय भूमि अण्डों से युक्त है और यावत्-प्राणियों से युक्त है या बीजों से युक्त है या हरित तृणघास वगैरह वनस्पतिकाय जीवों से सम्बद्ध है या शीतोदक से युक्त है या उत्तिन छोटे छोटे एकेन्द्रिय एवं द्वीन्द्रिय प्राणियों से सम्बद्ध है या पनक-फनगे कीडे मकोडे त्रसकाय जीवों से युक्त है या शीतोदकमिश्रित गिलीमिट्टी रूप पृथिवीकाय जीवों से संयुक्त है या मकडे के जाल परम्पराओं से सम्बद्ध है ऐसा जान ले तो 'तहप्पगारं निसीहियं इस प्रकार के अण्डादि जीवों से युक्त स्वाध्याय भूमि का अप्रासुकं-'आफासुयं अणेसणिज्ज जाव' सचित्त और अनेषणीय-आधाकर्मादि दोषों से युक्त, यावत् समझते हुवे साधु और साध्वी को 'नो चेइस्सामि' नहीं ग्रहण करना चाहिये अध्ययन के लिये उपाश्रय से बाहर इस प्रकार के अण्डादि युक्त स्वाध्याय भूमि रूप निषीधिका में नहीं जाना चाहिये क्यों कि संयम का पालन करना ही साधु और साध्वी का परम कर्तव्य होता है और इस प्रकार के सचित्त बीज अण्डादि युक्त स्वाध्याय भूमि में जाने से जीवों की हिंसा की संभावना होने से संयम १६५मा शव निकाधि॥३५ स्वाय भुमिन (स्थान विशेष) सम है 'सअॅड' २१॥ निषाधि॥३५ स्वाध्याय भूमि साथी युद्धत छ 'जाव संताणगं' यावत् प्राणियोथी युद्धत છે. અથવા બી થી યુક્ત છે. અથવા લીલા તૃણ ઘાસ વિગેરે વનસ્પતિકાય જીના સંબંધ વાળી છે. અથવા ઠંડા પાણીથી યુક્ત છે. અથવા રિંગ નાના નાના એકેન્દ્રિય અને દ્વીન્દ્રિય પ્રાણિયથીયુક્ત છે. અથવા પનક ફનગી કીડી મકેડી વિગેરે ત્રસકાય જેથી યુક્ત છે. અથવા શીતાદક મિશ્રિત ભીની માટી રૂપ પૃથ્વીકાયના જીથી યુક્ત છે. અથવા કળયાની anm ५२ ५३थी युद्धत छे. २॥ रीते तेमनी कामां आवे तो 'तहप्पगारं निसीहियं' मातथी थी युक्त स्वाध्याय भूभिने 'अफासुयं अणेसणिज्जं जाव' २मासु४ सचित्त अनेषणीय भाषामा दोष.थी युक्त समलने 'नो चेइस्सामि' साधु खालीये अड કરવું નહીં અને અધ્યયન માટે ઉપાશ્રયની બહાર આ પ્રકારના ઇંડા વિગેરેથી યુક્ત સ્વાધ્યાય ભૂમિરૂપ નિવાધિકા માં જવું નહીં કેમકે-સંયમનું પાલન કરવું એજ સાધુ અને સાધીનું પરમ કર્તવ્ય છે, અને આવા પ્રકારના ઈંડ વિગેરેથી યુકત સ્વાધ્યાય ભૂમિમાં જવાથી જીવેની હિંસા થવાનો સંભવ હેવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી સંય श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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