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________________ आचारांगसूत्रे 'पढमा पडिमा' इति प्रथमा प्रतिमा-प्रतिज्ञारूपाभिग्रहो बोध्यः, 'अहावरा दुच्चा पडिमा' अथापरा द्वितीया प्रतिमा-अभिग्रहरूपा प्रतिज्ञाप्ररूप्यते-'जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ'यस्य खलु भिक्षुकस्य एवम्-वक्ष्यमाणरीत्या मनसि विचारो भवति--'अहं च खलु' अहम् च खलु अवग्रहयाचको भिक्षुः ‘भन्नेसिं भिक्खूणं अट्ठाए' अन्येषां भिक्षुकाणाम् अर्थायनिमित्ताय 'उग्गई उग्गिहिस्सामि' अवग्रहम् अवग्रहीष्यामि अथ च 'अण्णेसि भिक्खूणं उग्गहे उग्गहिए उवल्लिसामि' अन्येषां भिक्षुकाणाम् अक्ग्रहे अगृहीते सति उपालयिष्येवत्स्यामि 'दुच्चा पडिमा' इति द्वितीया प्रतिमा-प्रतिज्ञा बोध्या, 'अहावरा तच्चा पडिमा' लिये आपको अनुमति होगी उतने ही काल तक और उतने ही स्थान में रह कर 'जाय विहरिस्सामो' हम लोग वहीं से विहार कर देंगे अर्थात् वहां से चले जायेंगे एतायता जितने हो समय तक और जितने ही स्थान में रहने के लिये आप का आदेश होगा, उतने ही समय तक और उतने ही स्थान में रह कर हम लोग यथासमय ही वहां से निकल जायेंगे इस प्रकार प्रतिज्ञा कर जैन साधु और जैन साध्वी को ठहरना चाहिये 'पडमा पडिमा' यह पहली प्रतिज्ञा रूप प्रतिमा या अभिग्रह का स्वरूप समझना चाहिये। अब दूसरी अभिग्रह रूप प्रतिमा या प्रतिज्ञा का स्वरूप बतलाते हैं-'जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवई'-जिस भिक्षुक अर्थात् संयमशील साधु को इस प्रकार वक्ष्यमाणरूप से मन में विचार होता है कि-'अहं खलु अण्णेसिं भिक्खू णं अट्ठाए' अवग्रह की याचना करने वाला मैं दूसरे भिक्षु संयमशील साधुओं के लिये 'उग्गहें उग्गिहिस्सामि' अवग्रह की याचना करूंगा और 'अण्णेसि भिक्खूणं उग्गहे' दूसरे साधुओं के लिये 'उग्गहिए उल्लिस्सामि अवगृहीतश्चित अवग्रह होने पर ही में निवास करूंगा, यह 'दुच्चा पडिमा' दूसरी प्रतिज्ञा रूप प्रतिमा का स्वरूप समझना चाहिये, अब तीसरी प्रतिज्ञा रूप प्रतिमा અર્થાત્ સમય પુરે થતાં અને તે સ્થાનમાંથી ચાલ્યા જઈશું એટલે કે જેટલા સમય માટે અને જેટલા સ્થાનમાં રહેવા માટે આપની સંમતિ હશે એટલા જ સમય સુધી અને એટલા જ સ્થાનમાં રહીને અમે સમય પુરો થતાં ત્યાંથી નીકળી જઈશું. આ પ્રમાણેની પ્રતિજ્ઞા शने सा५ है सावीमे त्यो २३ २0 'पढमा पडिमा' पडी प्रतिक्षा३५ प्रतिभा અથવા અભિગ્રહનું સ્વરૂપ સમજવું. वे भी मलि३५ प्रतिमा-प्रतिज्ञानु २१३५ सूत्र॥२ मतावे छ.-'जस्स गं भिक्खुस्स एवं भवइ' ०२ साधुना मनमा वियर भाव है 'अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खणं 'अद्वार उग्गहं उग्गिहिस्सामि' म नी यायना ४२॥२ . मन्य साधु भाटे अप. अनी यायन। शश. तम भण्णेसिं भिक्खणं उग्गहे उग्गहिए अल्लिम्सामि' alon साधुमे। भाट भात निश्चित भड थाय त्यारे दु. १ निवास शश. 'दुच्चा पडिमा' આ બીજી પ્રતિજ્ઞા રૂપ પ્રતિમાનું સ્વરૂપ સમજવું. श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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