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मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. १ सू. ६ सप्तम' अवग्रहप्रतिमाध्ययननिरूपणम् ८१९ 'अभिकंखिजा' अभिकाङ्क्षेत-वाच्छेत् 'उच्छवणं उवागच्छित्तए' इक्षुवनम् उपागन्तुम् 'जे तत्थ ईसरे जाव' यस्तत्र-इक्षुवने ईश्वरः-इक्षुवनाधिपतिर्वा स्मात् यावत्-समधिष्ठाता वा स्यात् तम् अवग्रहम् अनुज्ञापयेत्, अथ स साधुः 'उग्गहंसि एवोग्गहियंसि' अवग्रहे स्वामिना अवगृहीते सति किं कुर्यात् ? इत्यत आह-'अह भिक्खू इच्छिज्जा उच्छु भुत्तए वा पायए वा' अथ-अनन्तरम् भिक्षुः इच्छेत् इहूं भोक्तं वा इक्षुरसं पातुं वा, तर्हि 'से जं पुण उच्छं जाणिज्जा' स साधुः यत् पुनः इक्षुम् जानीयात् 'स अंडं जाव' साण्डम्-अण्डसहितम् यावत्सबीजं सहरितं सप्राणं सोदकं सोतिङ्गपनकद कमृत्तिका लूतातन्तुजालसहितम् वर्तते तहि 'अफा. सुयं जाव नो पडिगा हिज्जा' अप्रासुकम् सचित्तम् यावद् अनेपणीयं मन्यमानः नो प्रतिगृह्णीइसलिये इस प्रकार के आम्र को ग्रहण करे । ___ अब गन्ना इक्षु को नहीं ग्रहण करने के लिये बतलाते हैं-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी 'अभि. कंखिज्जा इच्छुवर्ण उवागच्छित्तए' यदि गन्ना के वन में जाने की इच्छा करे और 'जे तत्थ ईसरे जाव' जो कोई उस गन्ना वन का स्वामी हों या यावत् अधिष्ठाता हो तो उनसे 'उग्गहंसि एवोग्गहियंसि' गन्ना को खाने या गन्ना के रस पीने के लिये अनुमति की याचना करे और याचना कर लेने पर 'अहभिक्खू इच्छिज्जा उच्छु भुत्तए वा' वह भिक्षु यदि गन्ना को खाने के लिये या 'पायए वा' गन्ना के रस को पीने के लिये इच्छा करे और 'से जं पुण उच्छं जाणिज्जा' वह साधु यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से जानले कि 'सअंडं जाव' यह गन्ना अण्डादि से युक्त है और यावत बीजादि से सम्बद्ध है तो ऐसा जानकर उस गन्ना को 'अफासु जाव नो पडिगाहिज्जा' अप्रासुक सचित्त समझकर यावत् नहीं ग्रहण करना चाहिये क्योंकि इस प्रकार के अण्डादि से युक्त गन्ना को કેમ કે-આ રીતની કેરીના ભાગને ખાવા કે પીવાથી સંયમની વિરાધના થતી નથી. તેથી આવી રીતની કેરીને ગ્રહણ કરી લેવી.
से अड न ४२॥ विषे ४थन ४२पामा मार छ. 'से भिक्ख पा भिक्खु. णो वा' त ति यमशील साधु मान सनी 'अभिकंखिज्जा उच्छवणं उवागच्छित्तए' ने सेसीना वनमा पानी छ। ७२ ते 'जे तत्थ ईसरे जाव' ये सेसडाना बनना भासी डाय यावत् मधि डाय तेमनी पासे 'उग्गहंसि एवोग्गहियंसि' सेसी भाषा કે સેલડીના રસને પીવા માટે અનુમતિની યાચના કરવી. અને યાચના કર્યા પછી 'अह भिक्खू इच्छिज्जा उच्छु भुत्तर वा, पायर वा' ते साधुन सेसी भावभाट सेalRL २स पीवानी २७१ ४२ ‘से जं पुण उच्छु जाणिज्जा' भने ते साधु ने से १क्ष्यमा शत -'सअंडं जाव' मा सेसी माथी युद्धत छ. मन यावत् मीन विगेरेना सी छ. मेम समलने 'अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा' तो
श्री सागसूत्र :४