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________________ ७२ आचारांगसूत्रे परिव्राजकैः परिवाइयाहि वा' परिवाजिकाभिर्वा 'एगज्ज सद्धि' ऐकधं योगपधेन सार्द्धम् संधीभूयेत्यर्थः 'सोंउ पाउं' शीधु मदिरां पातुम् मुरासेवनार्थ 'भो ! वतिमिस्सं हुरत्या वा' भोः ! इत्येवं तान् संयोध्य, गृहपति प्रभृतीन् आमच्येत्यर्थः, संखडिगतस्य लोलुपतया सर्व संमान्य तैः सार्द्धम् व्यतिमिश्रं मिश्रितं सीधुम् अन्यद वा प्रसभादिकं पीत्वेत्यर्थः तदनन्तरं बहिर्यानिष्क्रम्य 'उवस्सयं पडिले हेमाणे' उपाश्रयं यदि प्रत्युपेक्षमाणः अन्यमुपायं याचमानो 'णो लभिज्जा' नो लभेत तर्हि 'तमेव उवस्सयं' तमेव उपाश्रयं संखडिनिकटवात उपाश्रयम् 'संमिस्तीभावमावज्जिज्जा' संमिश्रीमायम् गृहपति परिव्राजकोदिभिः सह एकत्रीभावम् आपधत, प्राप्नुयात, तथासति 'अनमणे वा से मते विप्परियासियभूए' तत्र स असौ साघुः अन्यमनाः अन्यमनस्को वा मते : विपर्यासीभूतः विपर्यस्तः सन् आत्मानं साधुस्वरूप काओं-संन्यासिनियों के साथ 'ऐगज्ज' एक साथ 'सद्धि' सार्थम् संघीभूय मिलकर 'सोऊं पाऊ' मदिरापान के लिये 'भो, वतिमिस्सं हुरत्था वा भोः ! ऐसासंबोधन करके अर्थात् गृहपति वगैरह को बुला करके संखडी में उपस्थित होने के कारण लोलुपता से सभी वस्तु की संभावना हो सकती है इसलिये उन सब के साथ मिश्रित शराब मदिरा या अन्य कुछ सोडा बाटर बगैर प्रसन्न वस्तु पीकर या संखडी से बाहर निकलकर 'उवस्सयं पडिलेह माणी' यदि अन्य उपाश्रय को शोधते ढुंढते हए 'णोलभिज्जा' नोलभेत-नहीं प्राप्त कर सके तोतमेव उवस्सयं' तमेव उपाश्रयम्-संखडी के निकटवर्ति उपाश्रय में ही 'संमिस्सीभावमावजिज्जा' गृहपति परिबाज आदि सभी के साथ एकत्री भावको प्राप्त करेगा-अर्थात् उसी संखड़ी के निकटवर्ति उपाश्रय में सभी साधु संन्यासी गृहस्थ-गृहस्थ की भार्या परित्राजिकाएं मिलजुल कर रहेंगे और एकत्रित हो जाने से 'अन्न मणे वा से मत्ते विप्परियासियभूए' वहां पर वह साधु अन्यमनस्क हो कर या उन्मत्त होकर या विपर्यस्त-उदभ्रांत होकर अपने स्वरूप को भूल जायगा, इसी तरह गृहस्थ वगै. 23 U 'सोउ पाउ' महि। पान भाटे 'भो वतिमिस्सं हुरत्था वायुसमाधन शन અર્થાત ગૃહપતિ વિગેરેને લાવીને સંબડીમાં ઉપસ્થિત થવાના કારણે લુપતાથી બધી વસ્તુ લેવાની સંભાવના રહે છે. તેથી તે બધીની સાથે મેળવેલ મદિરા અથવા અન્ય सो वाटर विगेरे मन५४ वस्तु पीयने अथवा समीथी महार नीजीने 'उवस्सयं पडिलेहेमाणे on GIयने मागता छti णो लभिज्जा' ते प्राप्त न थाय तो 'तमेय उस्सयं' समानी सभी५० पाश्रयमा 'संमिस्सीभावमावजिज्जा' पति, સંન્યાસી વિગેરે બધાની સાથે એકત્રીભાવને પ્રાપ્ત કરશે. અર્થાત્ એ સંખડીની સમીપમાં રહેલ ઉપાશ્રયમાં સઘળ સાધુ, સંન્યાસી, ગૃહસ્થની સ્ત્રી, પરિવ્રાજક એ બધા સાથે भारी सन. 1 / वाथी 'अण्णमणे वा से मत्ते विपरियासियभूए' त्यां આગળ તે સાધુ અન્ય મનસ્ક થઈને અથવા ઉન્મત્ત થઈને અથવા વિપર્યસ્ત-ઉન્મત્ત श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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