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मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. २ सू. ६ सप्तम' अवग्रहप्रतिमाध्ययननिरूपणम् ८१७
के अण्डादि सम्पर्क युक्त आम्रफल को अर्धखण्ड भाग वगैरह को खाने से और पीने से संयम की विराधना होगी और आत्मा की भी विराधना होगी इसलिये इस प्रकार के अण्डादियुक्त आम्रफल भाग को नहीं ग्रहण करना चाहिये क्योंकि संयमपालन करना ही साधु का परम कर्तव्य समझा जाता है इसलिये संयम का पालन करनेवाला साधु इसे नहीं ग्रहण करे ।
अब प्रकारान्तर से भी आम्रफल के अर्धखण्डादि भाग को नहीं लेना चाहिये यह बतलाते हैं - ' से भिक्खू वा भिक्खुणी वा, से जं पुण जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से जानले कि 'अब वा अंबभित्तगं वा जाव' यह आम्रफल या आम्रफल का अर्धखण्ड भाग या यावत् आम्रफल का रस वगैरह अल्पाण्ड है अर्थात् अण्डादि रहित है यावत् बीजादि से सम्बद्ध नहीं है किन्तु 'अतिरिच्छछिन्नं' तिर्यक् छिन्न नहीं है और 'अवोच्छिन्नं' खण्डखण्ड काटा हुआ भी नहीं है ऐसा जानकर इस प्रकार के अखus आम्रफल को 'अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा' अप्रासुक-सचित्त एवं यावत् अनेषणीय-आधाकर्मादि दोषों से युक्त समझने हुए साधु और साध्वी को नहीं ग्रहण करना चाहिये क्योंकि इस प्रकार के अखण्ड आम्रफल के अर्धखण्डभाग वगैरह को अप्रासुक सचित्त और अनेषणीय होने से ग्रहण करने पर संयम की विराधना होगी इसलिये संयम का पालन करनेवाले साधु और साध्वी को इस प्रकार
સંયમની વિરાધના થાય છે. અને આત્માની પણ વિરાધના થાય છે, તેથી આ પ્રકારના ઈંડાદિથી યુક્ત કેરીના ભાગને ગ્રહણુ કરવા નહી' કેમ કે સંયમનુ પાલન કરવુ એજ સાધુ અને સાધ્વીનું પરમ બ્ય મનાય છે. તેથી સંયમનુ' પાલન કરવાવાળા સાધુએ તેને ગ્રહણ કરવા નહી. હવે પ્રકારાન્તરથી પણ કેરીના અખડાદ ભાગને ન લેવા વિષે કથન કરે છે.'से भिक्ख वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वोक्त संयमशील साधु भने जाणिज्जा' ले वक्ष्यमाणु रीते लगी से है- 'अंबं वा अंबभित्तगं वा'
साध्वी 'से जं पुण मा डेरी अथवा
रीना अर्धेलाग 'जाव अप्पंडं वा' यावत् रीना रस विगेरे यांड छे अर्थात् माहि विनानी छे. यावल भी विगेरेना संभंधवाणी नथी. 'जाव अतिरिच्छछिन्नं' परंतु तिर्य छिन्न नथी. तथा 'अवोच्छिन्नं ४४ । ४ । ४रेस नथी. ये रीते भो तो 'अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा' तेवा प्रभारनी समं पुरीने अप्रासु सत्ति मेवं यावत् अनेषणीयઆધાકદિ દોષોથી યુક્ત સમજીને સાધુ કે સાધ્વીએ ગ્રહણ કરવા નહી' કેમ કે આ રીતની કાપ્યા વિનાની અખંડ કેરી કે તેના અભાગ વિગેરેને અપ્રાસુ* સચિત્ત અને અનેષણીય હાવાથી તે ગ્રહણ કરવાથી સયમની વિરાધના થાય છે તેથી સંયમનુ' પાલન કરવાવાળા સાધુ અને સાધ્વીએ આવા પ્રકારની અખંડ કેરીના અભાગ વિગેરેને ગ્રહણ કરવા નહીં,
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શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪