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मर्म प्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. २ स. २ षष्ठ पात्रैषणाध्ययननिरूपणम् ॥ बोध्यम्, भगवत उपदेशमाह-'आउसंतो! समणा !' आयुष्मन् ! श्रमण ! 'अंतो पडिग्गहगंसि' अन्तः पतद्ग्रहे-पात्राभ्यन्तरे 'पाणे वा बीए वा हरिए वा' प्राणो वा-कश्चित् प्राणी वा कीटादिः बीजं वा किश्चित सचित्तं हरितं वा किञ्चिद 'उत्तिङ्गपनकद कमृत्तिकामर्कट. सन्तानप्रभृति सचित्तं वा 'परियावन्जिज्जा' पर्यापतेत आपतितं स्यात् किन्तु 'अह भिक्खूणं पुगोवदिटुं' अथ भिक्षणां साधूनां साधीनाश्च कृते पूर्वोपदिष्टा एषा प्रतिज्ञा वर्तते 'जं पुवामेव पेहाए पडिग्ग' यत् पूर्वमेव-भिक्षाग्रहणात्प्रागेव प्रेक्ष्य पतद्ग्रहम्-पात्रं प्रतिलिख्य पात्रालेखनं विधायेत्यर्थः 'अवहटु पाणे' प्राणान् प्राणिनः कीटादीन् आहत्य-अपहृत्य निस्सार्य 'पमज्जिय रयं रजः-धूलिकणम् प्रमृज्य प्रमार्जनं कृत्वा 'तओ संजयामेव' ततः पात्रप्रमार्जनानन्तरम् संयतमेव-यतना पूर्वकमेव 'गाहावइकुलं निक्ख मिज वा पविसिज्ज वा' गृहपतिकुलम्महावीर स्वामीने उपदेश दिया है कि 'आउसोत्ति' हे आयुष्मन् श्रमण ! 'अंतो पडिग्गहंसि पाणे वा बीए वा' पात्र के अन्दर कोई कीटादि प्राणी, एवं अंकुर उत्पादक सजीव बीज तथा 'हरिए वा परियावजिजा' हरित वर्ण वाला तृण घास वगैरह सचित्त वनस्पति हो सकता है इसलिये पात्र का प्रतिलेखन और प्रमार्जन नहीं करने से जीवहिंसा होने की संभावना रहती है इसलिये पात्र का प्रतिलेखन और प्रमार्जन करके ही भिक्षा ग्रहण करना चाहिये इसी तात्पर्य से 'अहभिक्खूगं पुव्योवदिटुं' भगवान महावीर स्वामीने भिक्षु और भिक्षुकी के लिये पहले ही उपदेश दिया है कि हे आयुष्मन् ! श्रमण ! 'जं पुवामेव पेहाए' भिक्षा ग्रहण करने से पहले ही पात्र को देख भाल कर 'पडिग्गहगं, अवहटूटु पाणे' पात्र के अन्दर से जीव जन्तु को हटाकर और 'पमजियरयं' रज अर्थात धूलिकणों को प्रमार्जन कर 'तओ संजयामेव' उस के बाद यतनापूर्वक ही 'गाहावइकुलं निक्खमिज्ज वा' गृहपति गृहस्थ श्रावक के घरमें भिक्षा लेने के लिये उपाश्रय से निकले तथा 'पविसिज्ज वा' गृहस्थ के घर में भिक्षार्थ प्रवेश उपहेश छ है-'आउसाति' मायुष्मन् ! श्रम ! “अंतो पडिग्गहंसि पाणे वा बीए वा દgિ વા” પાત્રની અંદર કે કીડી મકોડી વિગેરે પ્રાણ તથા અંકુર ઉત્પાદક સજીવ બી तथा हालातरी तृप घास विगैरे सथित वनस्पति परियावज्जिज्जा' ५ डाय छे. तथा પાત્રનું પ્રતિલેખન અને પ્રમાર્જન કરવાથી જીવ હિંસા થવાની સંભાવના રહે છે તેથી पात्रनु प्रतिमन भने प्रमानन ४रीन मिक्षा ग्रहण ४२वी. मातुथी 'अह भिक्ख णं पुवोपदिट्ठ' मापन महावीर स्वामीथे साधु मन सापान पसेयी ४ दृश ४२ छे 8-जं पुत्वामेव पेहाए' 3 आयुज्मन् ! श्रम ! मिक्षा ९५ ४२di पडेलin पात्रने उन 'पडिगाहगं' पानी म२ना 'अवहटु पाणे' 'तुमान २ ४रीने तथा 'पमज्जिरय' धून। २०४:४॥ ६२ ४२ 'तओ संजयामेव' ते पछी सयम ५ ॥ 'गाहावइ कुलं' 2३२५ १४ना घरभा निशा अड ४२॥ माटे ‘णिक्खमिज्ज वा पवि.
श्री सागसूत्र :४