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________________ मर्म काशिका टीका-श्रुतस्कंध २ उ. १ स. १ पष्ठ पात्रैषणाभ्ययननिरूपणम् ५९ इदं पात्रम् 'तिल्लेग वा घयेग वा नवनीयेण वा बसाए वा अन्भंगित्ता' तैले न वा घृतेन वा नवनीतेन वा-हैयंगवीनेन (मक्खन) वसया वा-औषधिरसविशेषेण वा अभ्यजप-अभ्यञ्जनं कृत्वा पात्रं ददमः 'तहेव' वस्वैषणोक्तरीत्यैव स्नानादि बोध्यम्, तथा च वयं पश्चादपि आत्मनः स्वार्थ प्राणान् भूतानि जीवान् सचान समारभ्य समुद्दिश्य याग्न चेतयिष्यामः इत्येवं गृहस्थस्य निर्वोपं श्रुत्वा निशम्य तथाप्रकारं पात्रम् अप्रासुकं सचित्तम् अनेषणीयम् आधाकर्मादिदोषयुक्तं मन्यमानो नो प्रतिगृह्णीयात्, ततः परो नेता गृहस्थो वदेत-आयुष्पति ! भगिनि! आहर इदं पात्रम्, स्नानेन वा-स्नानीयद्रव्यविशेषेण, कर्केण वा लोघेण वा चूर्णेन वा आघृष्य प्रघृष्य वा श्रमणाय दास्यामः इति, एतत्पकारं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य स साधुः पूर्वहे आयुष्मति ! भगिनि ! 'आहरेयं पायं' इस पात्र को अभी ले आओ 'निल्लेणवा घएण वा नवणीएण वा वमाए वा तैल से या घृत से या नवनीत मवख नसे या वसा-औषधि विशेष से 'अभंगित्ता' अभ्यञ्जन करके अर्थात तेल घृतादि से ओत प्रोत करके स्निग्ध पात्र को देते हैं 'तहेव सिणाणादि' इस प्रकार स्नानादि समझना चाहिये अर्थात् वस्त्रैषणोक्तरीति के अनुसार ही हम पीछे भी अपने स्वार्थ के निमित्त प्राणियों भूतों जीवों और सत्वों को समार. म्भादि करके पात्र बनवालेंगे इस प्रकार उस गृहस्थ के वचन को सुनकर और हृदय में अवधारण कर उस तरह के पात्र को अप्रासुक-सचित्त तथा अनेषणीय आधाकर्मादि दोषों से युक्त समझकर नहीं ग्रहण करे, उस के बाद वह गृहस्थ श्रावक अपनी स्त्री या बहन को कहे कि-हे आयुष्मति ! हे भगिनि ! इस पात्र को तुम अभी ले आओ ! स्नानीय चूर्ण विशेष से या लोध्रसे या पाउडर से या दूसरे किसी भी आंवलादि चूर्ण विशेष से घर्षण कर अर्थात् घिसकर साधु को देंगे, इस प्रकार के उस गृहस्थ प्रमुख का वचन सुनकर वह साधु कहे भाईन आहरेय पाय' मा पात्रने सत्यारे सा तेने 'तिल्लेण वा तसथी अथवा घएण वा' थीथी 424'नवनीएण वा' माथी अथवा 'वसाएण वा' पसा अर्थात् भोपाधि विशेषथी 'अब्भंगित्ता' २१६५ ४शन अर्थात् तद धूथ लित शन स्निग्ध पत्र ४शन भाषाश. 'तहेव सिणाणादि' २४ प्रमाणे स्नाना विष समापु अर्थात १२ પક્ત રીત પ્રમાણે જ અમે અમારા સ્વાર્થ નિમિત્તે પ્રણિયે ભૂત છો અને સને સમારંભાદિ કરીને પાત્ર બનાવી લઈશું એ રીતે એ ગૃહસ્થના વચનને સાંભળીને અને હદયમાં અવધારણ કરીને એ રીતના પાત્રને અપ્રાસુક-સચિત્ત તથા અનેષણય આધાકર્માદિ દેથી યુક્ત સમજીને ગ્રહણ કરવા નહીં. તે પછી તે ગૃહસ્થ શ્રાવક પિતાની પત્નીને કે પોતાની બહેનને કહે કે-હે આયુષ્યતિ અથવા હે બહેન આ પાત્રને અમે હમણ લાવે અને તેને સ્નાન કરવાના ચૂર્ણ વિશેષથી અથવા લેધથી કે પાઉડરથી અથવા બીજા કેઈ પણ જાતના ચૂર્ણ વિશેષથી ઘસીને અર્થાત્ એવી રીતે ઘસીને સાફ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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