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________________ ममैप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. २ सू० ११ पञ्चमं वस्त्रैषणाध्ययननिरूपणम् ७३३ हृदि विचार्य 'नो अन्नमनस्स दिज्जा' नो अन्योन्यस्मै अन्यस्मै यस्मै कस्मैचित् साधवे दद्यात् 'नो पामिच्चं कुज्जा' नो वा प्रामित्यम्-पर्युदश्चितं कुर्यात् पर्युदञ्चनरूपेण वस्त्रं न गृह्णीयाद्, न वा पर्युदश्चनरूपेण कस्मैचित् साथवे वस्त्रं दद्यादिति भावः 'नो वस्थेण वत्थपरिणाम कुन्जा' नो वा वस्त्रेण वस्त्रपरिणामम्-परस्परवस्त्रपरिवर्तनं कुर्यात् 'नो परं उवसंकमित्त एवं वदिज्जा'-नो परम्-अन्यं यं कमपि साधुम् उपसंक्रम्य समीपं गत्वा एवम्-वक्ष्यमाणरीत्या वदेत्-'आउ संतो! समणा !' आयुष्मन् ! श्रमण !" समभिकंखसि मे वत्यं धारित्तए वा परि. हरित्तए वा' समभिकाश सि-वाञ्छसि व मे मम वस्त्रं धारयितुं या परिधातुं वा ? इत्यपि न वदेदिति भावः 'थिरं वा संतं नो पलिच्छिदिय पलिच्छिदिय परिदृविज्जा' स्थिरं-दृढं वा चिरस्थायिसद् वस्त्रम् नो परिच्छिद्य परिच्छिद्य-छिन्नभिन्नं कृत्वा परिष्ठापयेत्-दग्धस्थण्डिलादिषु निक्षिपेत् 'जहा मेयं वत्थं पावगं परो मन्नइ' यथा-येन परिष्ठापनेन मम इदं वस्त्रम् ऐसा हृदय में विचार कर अपने वस्त्रों को 'नो अण्णमण्णस्स दिजा' जिस किसी भी दूसरे साधु को नहीं दे एवं 'नो पामिच्चं कुज्जा' उधार पैसा रूप में भी वस्त्रों को नहीं लेना चाहिये पैसा और उधार के रूप में साधु दूसरे साधु को वस्त्र दे भी और 'नो वत्थेण वत्थपरिणाम कुज्जा' वस्त्र से वस्त्र का परिवर्तन अदला बदली भी साधु को नहीं करना चाहिये तथा जिप्त किसी भी दूसरे साधु के 'नो परं उवसंकमित्त एवं वहज्जा' तथा दूसरे साधु के पास जाकर ऐसा वक्ष्य. माणरीति से बोले भी नहीं जैसे कि 'आउसंतो समणा' हे आयुष्मन् ! हे श्रमण ! 'समभिकंखसि मे वत्थं धारित्तए वा, परिहरित्तए वा' क्या तुम मेरे वस्त्र को ओढना या पहनना चाहते हो! ऐसा भी नहीं कहे एवं 'थिरं वा संतं नो पलिच्छिदिय पलिच्छिदिय परिहविजा' अत्यन्त स्थिर-मजबूत चिर स्थायी वस्त्र को छिन्न भिन्न करके अर्थात् दूसरे वस्त्र को प्राप्त करने के लालच से उस स्थिर अत्यन्त मजबूत वस्त्र को फाड चीर कर दग्ध स्थण्डिल वगैरह प्रदेश में भी नहीं वियाशन 'नो अन्नमन्नस्स दिज्जा' चाताना पसान भी साधुन मा५५॥ नहीं, 'नो पामिच्चं कुज्जा' धारा ३५मा ५५ वस्ने वा नही तथा 'नो वत्थेण वत्यपरिणामं कुन्जा' पखना मanwi मा १७ ॥ ३५ मा ५४८॥ ३५ वस्त्रे साधुसे १२ नही. तेभर 'नो पर उवसंकमित्तु एवं वइज्जा' भी साधुनी पांसे ने । पक्ष्यमाए। रीते ४३ ५ नही. रेम-'आउसंतो! समणा ! 3 आयुष्मन् ! अभए ! 'समभिकखसि मे वत्थं धारित्तए वा' भा२। वस्त्रोन तमे माढा, 'परिहारित्तए वा' पर२१४२७) रामो छ। ? 'थिर वा सत नो पलिच्छिदिय पलिच्छिदिय' सत्यत स्थिर भरभूत यि२२थायी वस्त्रने डर है 'पलिच्छिदिय' तीन अर्थात् मीत सारत ४२पानी લાલયથી એ સ્થિર અત્યંત મજબૂત વસ્ત્રને ફાડી ચીરીને દગ્ધ થંડિલ વિગેરે પ્રદેશમાં ५५३७५ नडी. -'मेयं वत्थं पावगं परो मन्नई' प२ि०४५- १२थी ४२५ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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