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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. २ सू० १० पञ्चमं वस्त्रैषणाध्ययननिरूपणम् ७२७ दिय परद्रविज्जा' स्थिरं-दृढं वा सत चिरस्थायि तद वस्त्रं नो परिच्छिद्य परिच्छिच छिन्न भिन्नं वा कृत्वा परिष्ठापयेत-दग्धस्थण्डिलादिषु न निक्षिपेदित्यर्थः, अपि तु 'तहप्पगारं वत्थं ससंधियं वत्थं तस्स चेव निसिरिज्जा' तथाप्रकारकं तथाविधम् प्रातिहारिकरूपं वस्त्रं ससन्धितम्-उपहतरूपवस्त्रम तस्य-तस्मै चैव साधवे मुहूर्तमात्रार्थ पुनः प्रत्यर्पण. बुद्धद्या प्रातिहारिकवस्त्रग्रहण करें एव निसृजेत् दद्यात् 'नो णं साइजिना' नो खलु स्वादयेत्-स्वयं तद्वस्त्रोपभोगं वस्त्रदाता न कुर्यादितिभावः 'से एगइओ एयप्पगारं निग्योसं मुच्चा निसम्म' ते एकके अनेके साधवेपि एतत्प्रकारम् - उपर्युक्तरूपं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य भिन्न भी कर के अर्थात् फाड चीर कर 'परदृविज्जा' फेंके भी नहीं, एतावता दग्ध स्थण्डिल वगैरह प्रदेश में अत्यन्त दृढ मजबूत उस वस्त्र को फाड चीर कर फेंक भी नहीं दे, अपितु 'तहप्पगारं वत्थ ससंधियं वत्थ तस्स चेव निसिरिज्जा'प्राति हारिक रूप उस वस्त्र को उपहत होने के कारण इसी साधु को वापस कर दे की जो मुहूर्त मात्र के लिये उस वस्त्र को तुरत वापस लौटाने के लिये कह कर लिया किन्तु पांच दिन तक पहन ओढ कर उपहत करदिया है उसी को देदेवें, किन्तु 'णो णं साइज्जिज्जा' वस्त्र दाता स्वयं उस वस्त्र का उपभोग नहीं करे इसी प्रकार और भी अनेकों साधु उक्तरीति से उस वस्त्र दाता साधु के इस वचन को सुनकर और हृदय में अवधारण कर जो दूसरे सांसारिक भय से त्राण करने वाले अनेकों साधु हैं उन से भी फिर वापस करदेने के वादा से वस्त्रों को नहीं लेना चाहिये, और यदि उक्त नियमानुसार मुहूर्त मात्र के लिये लेकर भी यदि पांचदिनों तक दूसरे ग्राम में ही पहन ओढ कर उपहत करके वापस करना चाहे तो उन वस्त्रों को भी वस्त्रदाता साधुओं को नहीं लेना चाहिये इसी तात्पर्य से कहते हैं कि-'से एगइओ एयप्पगारं निग्रोसं सुच्चा निसम्म,' वे अनेक साधु इस तरह के उस वस्त्रदाता साधु के शब्द को सुनकर और अपने हृदय में धारण कर परविज्जा' मयत भरभूत सेवा से पनने तोऽ३४१२ ३४ प नही मेसे દગ્ધ થંડિલ વિગેરે પ્રદેશમાં અત્યંત મજબૂત એવા એ વસ્ત્રને ફાડીને ફેંકી પણ દેવું नही. परंतु 'तहप्पगार वत्थं ससंधियं वत्थं' प्राति२ि४ ३५ मे रखने पत पाथी 'तस्सचेव निसिरिज्जा' से साधुने पाछु माथी र ६ मुहूत मात्र भाट અર્થાત્ તરત પાછું આપવાનું કહીને લીધેલ હતું. પણ પાંચ દિવસ સુધી પહેરી ઓઢીને अपत ४री वीधेश छ. तमन २४ मापी हे. 'णो णं साइज्जिज्जा' ५२'तु पत्र बताये પિતે એ વસ્ત્રને ઉપભોગ કરે નહીં. હવે અનેક સાધુ આવી રીતે છેડા વખત માટે વસ્ત્ર લઈ વધારે દિવસ રાખે તે सधी सूत्रधार ४थन ४२ छ.-'से एगइओ एयप्पगारं निग्योसं सुच्चा' ते मने साधुस। सारीतना से पख हाताना म्हने सामजीने अने, 'निसम्म' तेन हयमा पा२६] २ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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