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________________ ७१८ आचारांगसूत्रे तेषु वस्त्रं नातापयेदिति भावः ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा अभि. कंखिज्ज वत्थं आयावित्तए वा पयावित्तए वा' अभिकाक्षेद्-यदि वाञ्छेत् वस्त्रम् आतापयितुं वा प्रतापयितुं वा दहि 'तहप्पणारं वत्थं खंघसि वा-मंचंसि वा' तथाप्रकारम्-तथाविधम्-- धौतं वस्त्रम् स्कन्धे वा-स्थाणुरूपे, मश्च वा 'मालंसि वा पासादसि वा माले चा-गृहमाल. रूपे, प्रासादे वा 'हम्मंसि वा अन्नयरे वा' हम्य वा-धनिनां गृह विशेषरूपे,अन्यतरस्मिन् चा-तदन्य स्टन् ना 'तहप्पगारे अंतलिक्खजाए' तथाप्रकारे उपर्युक्तरूपे अन्तरिक्षनाते-अन्तरिक्षस्थले 'नो आयाविज वा पयाविज वा' नो आतापयेद् वा प्रतापयेद वा वस्त्रमितिशेषः, घायुकायिक जीवों की हिंसा की भी संभावना रहती है जिससे संयमकी विराधना होगी इसलिये इस तरह के दीवाल वगेरह पर भी वस्त्र को नहीं सुखाना चाहिये, इसी तरह मचान वगैरह पर वस्त्र को नहीं सुखाना चाहिये इस तात्पर्य से कहते हैं कि 'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, अभिकंखिज्ज वत्थं आयाचित्तए वा, पयावित्तए वा' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयनशील साधु और भिक्षुकी साध्वी यदि अपने वस्त्र को आतापन और प्रतापन करने की आकांक्षा करे तो 'तहप्पगारं वध' इस प्रकार के आतापन प्रतापन करने योग्य वस्त्र को 'खंधंसि वा' स्कन्ध के ऊपर अर्थात् मकान के मूलभूत आधार स्तम्भ पर या 'मंचंसि वा' मचान पर या मालंसि वा' माला पर या 'पासादसि वा' प्रासाद महल के ऊपर तथा 'हम्मंसि वा हर्म्य-कोटा के ऊपर या 'अण्णयरे वा तहप्पगारे वा' इसी तरह के किसी दूसरे भी 'अंतलिक्खजाए' अन्तरिक्ष-आकाश के मध्य में विराजमान अटारी के ऊपर 'नो आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा' आतापन तथा प्रतापन नहीं करना चाहिये क्योंकि उक्त रीति से सुकाने से ही संयम की विराधना होने ઉપર કપડાને સુકવવાથી કપડા પડી જવાની શક્યતા રહે છે. તથા વાયુકાયિક જીની હિંસાની પણ શકયતા રહે છે. તેથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી આવી રીતે ભીંત વિગેરેની ઉપર કપડા સુકવવા નહીં એજ પ્રમાણે માંચાં વિગેરેની ઉપર પણ पर सु४११ न RT 2 माशयथा सूत्र॥२ ४९ छ.-'से भिक्ख वा भिक्खुणी वा' ते सयमशील साधु अने. सावी 'अभिकंखिज्ज वत्थं आयावित्तए वा पयावित्तए वा' ले घाताना पने तन प्रतापन ४२पानी ४२ ता 'तहप्पगारं वत्थं' में प्रभा आतापन ४२१॥ योग्य परखने 'खधंसि वा' २७धनी ५२ अर्थात् मानना भू साधार स्तन ५२ या 'मंसि वा' भांय ५२ "मालंसि वा' मा ५२ २4241 'पासादसि बा' भसनी ५२ तथा 'हम्मंसि वा' उभ्य-3811 S५२ अथवा 'अन्नयरे वा तहप्पगारे' से ४२ अन्य 'अंतलिक्खजाए' अतरिक्ष मा४१० स्थानमा समसारी विनी ७५२ 'नो आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा' सातापन प्र॥पन माटे २१ नही. એ પ્રકારથી વસ્ત્ર સુકવવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી સંયમનું પાલન કરવાવાળા श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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