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________________ आचारांगसूत्रे ६९२ याचेत 'परो वा से देज्जा' परो वा गृहस्थः तस्मै साधवे दद्यात्, 'फासुयं एसणिज्जं जाव लाभे संते पडिगाहिज्जा' प्रामुकम् अचित्तम्, एषणीयम्-आधाकर्मादिदोषरहितं तद् वस्त्रं यावद् मन्यमानः साधुः लाभे सति प्रतिगृह्णीयात् 'दुच्चा पडिमा' इति द्वितीया प्रतिमावस्त्रैषणा अभिग्रहविशेषरूपा बोध्या । अथ तृतीयाभिग्रहस्वरूपं प्ररूपयितुमाह-'अहावरा तच्चा पडिमा' अथापरा-अथानन्तरम् अपरा-अन्या तृतीया प्रतिमा-वस्त्रैषणारूपा प्रतिज्ञा प्ररूप्यते-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुओं भिक्षुकी वा 'से जं पुण एवं जाणिज्जा' स संयमवान साधुः यत् पुनः एवम् वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात् 'तं अंतरिज वा उत्तरिज्जंवा तद वस्त्रम् अन्तरीयं वा-अधः परिधानकम्बल वगैरह वस्त्रको साधु स्वयं याचना करे या 'परो वा से देज्जा' गृहस्थ श्रावक ही उस साधुको देवे तदनुसार उस दिये जाते हुए कम्बलादि वस्त्रोको फासुयं एसणिज्ज' प्रासुक अचित्त तथा एषणीय आधाकर्मादि दोषों से रहित 'जाव लाभे संते पडिगाहिज्जा' यावतू समझकर वह साधु उस कम्मलादि वस्त्रो को आधाकर्मादि दोष रहित होने से ले लेवे 'दुच्चा पडिमा' इस प्रकार दूसरी प्रतिमारूप वस्षणारूप प्रतिज्ञा समझनी चाहिये। __ अब तीसरी प्रतिमारूप अभिग्रह विशेषात्मक प्रतिज्ञा का निरूपण करते हैं __'अहावरा तच्चा पडिमा-से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा,' अथ दूसरी वस्त्रै. षणारूप प्रतिज्ञाका निरूपण करने के बाद अब तीसरी वस्त्रैषणा रूप प्रतिमा का निरूपण करते हैं-वह पूर्वोक्त भिक्षु-संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी 'से जं पुण एवं जाणिज्जा' यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूपसे वस्त्रविशेषको जान ले कि यह 'तं अंतरिज्जं वा' अन्तरीय वस्त्र है अर्थात् पहेरने के योग्य कपडा है तथा यह उत्तरीय वस्त्र है अर्थात् शरीर के उपर ढांकने के योग्य वस्त्र है ऐसा यदि जान 'तहप्पगारं वत्थं सय वा जाइज्जा' २॥ शत ५ 6:त प्रान भि, sim विगेरे वक्षन साधुपात यायना १२वी. अथवा 'परो वा से देज्जा' गृहस्थ श्रा से साधुने माता सेवा प्रा२ना वखने 'फासुयं एसणिज्जं जाव' प्रासु४ मयित्त तथा मेषीय भाषामा पाथी २हित पायी 'लाभे संते पडिगाहिज्जा' यावत् समलने त साधु से मसा वसन प्राप्त थाय तो बडय ४२११. से रीत मा 'दोच्चा દિન’ બીજી ડિમા રૂપ અભિગ્રહ વિશેષાત્મક વલણ પ્રતિજ્ઞા સમજવી. હવે ત્રીજી પ્રતિમા રૂપ અભિગ્રહ વિશેષાત્મક પ્રતિજ્ઞાનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. 'अहावरा तच्चा पडिमा' भी परष! ३५ प्रतिभानु नि३५५१ ४ीन वेत्री पवैष ३५ प्रतिभानु नि३५ ४२वामां मावे छे. 'से भिक्ख वा भिक्खुणी या' ते alsत संयमशीस साधु मने साथी से जं पुण एवं जाणिज्जा' ले माग उपाभा मापनार शते व विशेषन orga-'तं अंतरिजं वा' 20 मतरीय अर्थात् परवा योग्य पक्ष छ. या 'उत्तरिन्जं व.' 1 उत्तरीय पक्ष छे मात शरीरनी ७५२ मोदवानु परख श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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