________________
मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. १ सू० ४ पञ्चमं वस्त्रैषणाध्ययननिरूपणम् ६७७ प्रक्षाल्य स्वच्छीकृतम्, रक्तं वा रञ्जनद्रव्येण रागेण रक्तीकृतं, घृष्टं वा घर्षणेन सरलीकृतं मृष्टं वा 'संपधूमियं वा' संप्रधूपितं वा सुगन्धिद्रव्येण धृपादिना मुवासितं वा 'तहप्पगारं वत्थं' तथाप्रकारं-तथाविधम् क्रीतादिरूपं वस्त्रं 'अपुरिसंतरकडं' अपुरुषान्तरकृतम् न पुरुपान्तरेण स्वीकृतम् 'जाव' यावद् अप्रासुकम् अनेषणीयं मन्यमानः साधुः साध्वी 'नो पडिगाहिज्जा' नो प्रतिगृह्णीयात्, तथाविधवस्त्रस्य पुरुषान्तरेण अस्वीकृतत्वाद् उत्तरगुणरहितत्वेन तदग्रहणे संयमविराधना स्यात्, अथ कीदृशं तथाविध वस्त्रं गृहीयादित्याह-'अह पुण एवं जाणिज्जा' अथ-यदि पुनः एवम्-वक्ष्यमाणरूपं वस्त्रं जानीयात् तद्यथा-'पुरिसंतरकडं जाव पडिगाहिज्जा' पुरुषान्तरकृतं पुरुषान्तरेण स्त्रोकृतं तद् वस्त्रं यावद् बहिनिहृतम् आत्मार्थिकम् न्धित धूपादि द्रव्य से सुवासित किया है तो 'तहप्पगारं वत्थं' इस प्रकारके क्रीतखरीदे गये या प्रक्षालित किये गये या रक्त किये गये एवं घर्षण से कोमल तथा मुष्ट-शुद्ध किये गये तथा सुगन्धित धूपादि से सुवासित किये गये वस्त्रको 'अपुरिसंतकडं जाव' पुरुषान्तर कृत नहीं होने से अर्थात् दाता से भिन्न पुरुषों द्वारा स्वीकृत नहीं होने के कारण अप्रासुक सचित्त तथा अनेषणीय-आधाकर्मादि दोषों से युक्त समझकर 'नो पडिगाहिजा' साधु और साध्वी नहीं ग्रहण करे क्योंकि इस प्रकार का वस्त्र पुरुषान्तर से स्वीकृत नहीं होने के कारण उत्तर गुण रहित होने से उस को ग्रहण करने पर संयमकी विराधना होगी इसलिये इस प्रकार का पुरुषान्तर से अस्वीकृत वस्त्र को आधाकर्मादि दोष युक्त होने से नहीं लेना चाहिये क्योंकि संयम का पालन करना परम कर्तव्य माना गया है
अब साधु और साध्वी को किस प्रकार का वस्त्र ग्रहण करना चाहिये यह बतलाते हैं 'अह गुण एवं जाणि जा' यदि वह साधु और साध्वी यदि ऐस वक्ष्य. माणरूप से वस्त्र को जानले कि यह वस्त्र 'पुरिसंतकडं जाव पडिगाहिज्जा' पुरुषा વસ્ત્રને પુરૂષાન્તર સ્વીકૃત ન હોય તે અર્થાત્ દાતાથી અન્ય પુરૂ દ્વારા સ્વીકારેલ ન હોવાને કારણે અમાસુક સચિત્ત- તથા અષણીય આધાકર્માદિ દેથી યુક્ત સમજીને સાધુ અને એ ગ્રહણ કરવા નહીં. કેમ કે આ પ્રકારના વસ્ત્ર પુરૂષાન્તરથી સ્વીકૃત ન હોવાના કારણે उत्तरशु ति पाथी त ५ ४२वाथी सयभनी विपना थायछे. तेथी 'तहप्पगारं वत्थं अपुरिसंतरकडं जाब' मा ४२ना पर पु३षा-त२थी स्वीकृत न पाथा लत्तगुष्य રહિત હોવાથી તેને ગ્રહણ કરવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી તેવા પ્રકારના પુરૂષાतरथी स्वीकृत नही सेवा आमाह प युत पाथी 'नो पडिगाहिज्जा तवा નહીં કેમ કે સંયમનું પાલન કરવું એ સાધુનું પરમ કર્તવ્ય માનવામાં આવેલ છે.
હવે સાધુ અને સાર્વીએ કેવા પ્રકારના વસ્ત્રો ગ્રહણ કરવા તે કથન કરવામાં આવે छ. 'अह पुण एवं जाणिज्जा' ने साधु मन सावी या पक्ष्यमा शत पसर गये है'पुरिसंतरकडे जाव पडिगाहिज्जा' मा ख ५३१ान्तरे सीहत ४२ बीस छे. अर्थात्
श्री सागसूत्र :४