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________________ ममप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. २ सू० ६ चतुर्थ भाषाजातमध्ययननिरूपणम् ६५३ अक्रियाम् अकटु काम् अकर्कशाम् अनिष्ठुराम् अप्राण्युपतापिनीम् अभूतोपघातिनीम् अभिकाक्ष्य-मनसा पर्यालोच्य विचार्य भाषेत । अथ साधूनां वनीयफलविषये अभाषणयोग्यां भाषामधिकृत्याह-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स-संयमवान् भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'बहुसंभूया वणफला पेहाए' बहुसंभूतानि-अत्यधिकपरिमाणतया उत्पन्नानि वनफलानि प्रेक्ष्य-दृष्ट्वा 'तहावि ते नो एवं वइज्जा' तथापि तानि प्रचुराणि वनफलानि नो एवम्-वक्ष्यमाणरीत्या वदेत् 'तं जहा पक्काइ वा पायखज्जाइ वा पक्यानि इति वा-परिपक्वानि वर्तन्ते इत्यर्थः पाकखाद्यानि-घासादिना परिपाकेन खादितुं योग्यानि सन्ति इति वा, 'वेलोइयाइ वा टालाइ वा वेहियाइ वा' वेलोचितानि-ग्रहणकाल योग्यानि' जाते अपितु अक्रिय माने जाते हैं एवं इस प्रकार के जातिमत् वगैरह शब्द कटु भी नहीं माने जाते हैं तथा कर्कश एवं निष्ठुर तथा परुष और प्राणियों का उपताप जनक भी नहीं माने जाते हैं और भूतों का उपघात जनक नहीं समझे जाते हैं इसलिये मन से विचार कर वृक्षादि के विषय में 'भासिज्जा' ऐसे ही जातिमत् वगैरह शब्दों का प्रयोग करना चाहिये क्योंकि संयम का पालन करना ही साधु और साध्वी को परमावश्यक है, ___ अब साधु को वन्यफल के विषय में नहीं बोलने योग्य भाषा को लक्ष्यकर कहते हैं-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' वह पूर्वोक्त भिक्षु और भिक्षुकी 'बहुसंभूया वनफला पेहाए' अत्यधिक परिमाण में उत्पन्न वनीय फलोंको देखकर उन अति अधिक मात्रामें 'तहाविते नो एवं वइज्जा' उन उत्पन्न वनफलोंकों इसप्रकार वक्ष्यमाणरीति से नहीं बोले 'तं जहा' जैसे कि 'पकाइवा' ये फल परिपक्व हो गये हैं एवं 'पायखजाइवा' घासादि के द्वारा पकाये जाने से खाने योग्य हैं तथा 'असावज्जं जाव' असावध माय भने माननीय उपाय 2. तथा यावत् मन પ્રવૃત્તિજનક રૂપે સક્રિય પણ મનાતા નથી. પરંતુ અક્રિય કહેવાય છે. અને આવા પ્રકારને જાતિમાન વિગેરે શબ્દો કટુ કહેવાતા નથી. અને કર્કશ તથા નિષ્ફર અને પરૂષ એવં પ્રાણિયેના ઉપતાપ કારક પણ હેતા નથી, અને ભૂતેના ઉપઘાત જનક પણ તે va ता नथी. तथा भनथी विया२ ४रीन वृक्षाहिना समयमा भासिज्जा' मा । જાતિમાન વિગેરે શબ્દોને પ્રયોગ કરીને કહેવું. કેમ કે સંયમનું પાલન કરવું એજ સાધુ અને સાર્વીને ખાસ જરૂરી છે. હવે સાધુ અને સાધ્વીએ વન્યફળના સંબંધમાં ન બેલવા યોગ્ય ભાષાને ઉદેશીને ४थन ४३ 2.-से भिक्ख वा भिक्खुणी वा' ते पूरित सयमशील साधु सने साथी 'बहुसंभूया बणफला पेहाए' पधारे प्रमाणुभां 4-1 थये। वनणाने धन ते मणि भात्राया थयेमा पनगाने 'तहावि ते नो एवं वइज्जा' मा पक्ष्यमा शत नही 'तं जहाभ 'पक्काइ वा' मा ३॥ ही गया छे. 'पायखज्जाइ वा तया घास श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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