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________________ ५३२ आचारांगसूत्रे बहि जलनिष्काशनं कुरु इत्येवं यदि नाविकः साधु वदेत्तहि 'नो से तं परिन्नं परिजाणिज्जा' नो स साधुः तां परिज्ञाम् नावि प्रेरगारूपां प्रतिज्ञां परिजानीयात् स्वीकुर्यात्, अपि तु 'तुसिणीओ उहिज्जा' तूष्णीको भूत्वा उपेक्षेत-उपेक्षां कुर्यात् न किश्चिदपि यदेदिति भावः, 'से णं परो नावागभो नावागयं वइज्जा' स खलु परो नौगतः नाविकः नौ गतम् नावारूढं साधुं यदि वदेत्-'आउसंतो ! समणा!' आयुष्मन्तः श्रमणाः । 'एयं तुम नावाए उत्तिगं' एतत् खलु त्वम् नावः रन्ध्रम् छिद्रम् 'हत्थेण वा' इस्तेन वा' 'पाएण वा' पादेन वा 'बाहुणा वा बाहुना वा 'उरूणा वा उरुणा वा जानुना, 'उदरेण वा' उदरेण वा 'सीसेण वा' शीर्षेण या कारणा' कायेन वा 'उरिसरणेण वा' उत्सिश्चनेन वा बहिर्जलनिष्काशकपात्रविशेषेण 'चेलेणवा' चले न पा वस्त्र विशेषेण 'मट्टियाए वा मृत्तिकया या' मृत्पात्र. विशेषेण 'कुसपत्तएण वा' कुश केण वा कुशनिर्मिनपात्रविशेषेण 'कुविंद एण वा' कुविन्दकेन वा कुविन्दनामकतृणविशेषनिर्मितपुट केन, हस्त पादादिना नावश्छिद्रं 'पिहेरि' पिधेहि एण वा' कुश पत्र से बने हुए पात्र विशेषसे 'कुदिएण या' कुविन्द नामके तृण विशेष से निर्मित पुटकसे या हस्तपादादि से नावके छिद्रको बन्द कर दीजिए, इस तरह कहने पर वह ‘णो से तं परिणं परिजाणिज्जा' साधु उस नाविक की इस प्रकार की प्रतिज्ञा-प्रेरणाको भी नहीं स्वीकार करे अपितु तुसि. णोओ उवेहिजा' चुप होकर ही मौन साधे हुए उसकी उपेक्षा कर दे अर्थात् कुछ भी नहीं बोले अन्यथा इस प्रकार के नाविक के वचनों का उत्तर देने से संय. मकी चिराधना होगी क्योंकि नाव के छिद्रको बन्द करेगा तो संयमका पालन परिजाणिज्जा' में से पायात नाविनी प्रेरणाने साधुये स्पी४२वी नही ५२ 'तुसिणीओ उवेहिज्जा' यु५ २डीने भौन धारण शव ते ४यननी उपेक्षा ४२वी तेने उत्तर भा५३। नडी. सावी भौन २५वा छतां ते नायि साधुने 'से णं परो नावागओ नावागय वइजा' सेम डे-आउसतो समणा' 8 मायुमन् श्रम ! 'एय तुम नावाए उत्तिंग' मा५ २॥ नन ने 'हत्थेण वा पाएण वा' हाथी है ५५थी मया 'बाहुणा उरुणा वा भुयी : ७३थी अर्थात् auथी 4241 'उदरेण वा सीसेण वा पेटथी है मायाथी १२ कारण वा उस्सिंचगेण वा' शरीरथी , पाणी ४ पाना त्रयी अथवा 'चेलेण वा मट्टियाए वा' परथी भाटीथी 24240 'कुसपत्तएण वा' या मनात पात्र विशेषथी अथवा 'कुर्विदेण वा' विनामना पासथी मनास पात्रथी पहेहि' मन्ध री । । प्रमाणे ते नावि ४ तो 'नो से तं परिन्न पडिजाणिज्जा' ते साधुमे स नाविनी मा ४२ प्रेरणानी स्पी४.२ ४२३॥ नही ५२'तु तुसिणीओ उहिज्जा' મૌન રહીને જ તેની ઉપેક્ષા કરવી અર્થાત્ સાધુએ કંઈપણ બેલિવું નહીં કારણ કે બે श्री आया। सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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