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________________ ५०६ आचारांगसो पणगदगमटिया जाय असंताणगा' अल्पोत्तिङ्गपनकदकमृत्तिकायावत् असन्तानकाः क्षुद्रजीवजन्तुत्रसरूपोत्तिङ्गपनकाः दकमृत्तिकाः शीतोदकमिश्रितमृत्तिकाः यावत्-लूतातन्तुजाल. रूपससन्तानवर्जिताः मार्गा सन्ति 'बहवे जत्थ समणमाहणअतिहिकिवणवणीवगा' बहवः अनेके यत्र-यस्मिन् ग्रामादौ यदा श्रमणब्राह्मणअतिथिकृपणवनीपकाः 'उवागया उवागच्छंति उवागमिस्संति वा' उपागताः, उपागच्छन्ति, उपागमिष्यन्ति वा 'सेवं णच्चा' स साधुः एवम्-उपर्युक्तरीत्या ज्ञात्वा-विज्ञाय 'तओ संजयामेव ततः तदनन्तरम्, संयतः एवसंयमनियमपालनपूर्वकमेव 'गामाणुगामं दृइज्जिज्जा' ग्रामानुग्रामम् ग्रामाद् ग्रामान्तरं गच्छेत् विहारं कुर्यात्, न कथमपि तत्र निवसेदिति भावः ॥ ५॥ मूलम्-से भिक्खू या भिक्खुणी वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे पुरओ जुगमायाए पेहमाणे दट्टण तसे पाणे उद्धट्ट पादं रीइजा साह? दगा' अल्पोदक याने शीतोदक से भी रहित रास्ता हो चुका है और 'अप्पु. तिंग' अल्पउत्तिङ्ग छोटे छोटे ऊल वगैरह जीवों से रहित है एवं 'पणगदग महिया जाव' अल्प फनगा चिटी पिपरी वगैरह सूक्ष्म जीवजन्तुओं से रहित मार्ग हो गया है एवं शीतोदक मिश्रित गिलि मोही भी नहीं है एवं यावत् 'असंताणगा' मकराका जाल जन्तु संतान परम्परा से भी रहित मार्ग हो चुका है ओर जहां पर 'बहवे समणमाह अतिहि बहुत से श्रमण शाक्य चरक प्रभृति साधु संन्यासी और ब्राह्मण अतिथि अभ्यागत 'किवणवणीमगा उवागया' कृपण-दीन-दरिद्र और वनीपक याचक आ गये हो और 'उचागच्छंति उवाग. मिस्संति' आ जाते हों और आनेवाले हों ऐसा 'सेवं णच्चा' जानकर वह साधु और साध्वी 'तओ संजयामेव' संयम पूर्वक ही 'गामाणुगामं 'दूइज्जिजा' ग्रामा नुग्राम-एक ग्राम से दूसरे ग्राम चला जाय किन्तु किसी भी तरह उस जगह में नहीं रहे जहां कि चातुर्मास रहे हो ॥सू० ५।। घास विगेश्या हित ये छे. तथा 'अप्पोदगा अप्पुत्तिंगपणग' ६४ २डित २२ते। થઈ ગયેલ છે તથા અ૫ ઉતિંગ અર્થાત્ છણાજણ થી રહિત તથા અ૫૫નક 81.3. पतमिया विगेरे । तुम विनाम। भाग गये छे. 'दगमट्टिया जाव असंताणगा' तथा ४१ पाणीवाजी दही माटि पण नथी. व यावत् भीडानी - तत ५२ ५२।थी ५६ २लित भाग छ. तथा 'बहवे जत्थ समणमाहण' या ध। श्रम ॥४य ५२४ विगेरे साधु सन्यासी मन माझय तथा 'अतिहि किवणवणीमगा' मतिथि सल्यागत १५-दीन रिद्र माने याय'उबागया उवागच्छति उवागमिस्संति वा' यापी गयेस डाय म त ता य मने सावधान डाय 'सेवं णच्चा तओ संजयामेव' मा प्रमाणे Mela ते साधु भने सायो सयमपू' ५ 'गामाणुगामं दृइजिज्जा' में ગામેથી બીજે ગામે વિહાર કરે પણ વષવાસના સ્થાને કોઈપણ રીતે રહેવું નહીં પ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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