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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध ३ उ. १ सू० ३ तृतीयं ईर्याध्ययननिरूपणम् ५०१ श्रमणब्राह्मणातिथिकृपणवनीपकाः शाक्यचरकप्रभृतिश्रमणाः ब्राह्मणाः द्विजाः अतिथयः कृपणाः दीनाः, वनीपकाः दरिद्रयाचका: 'उवागया वा उवागमिस्संति वा उपागता वा समागता एवं उपागमिष्यन्ति-समागमिष्यन्ति वा अथ च 'अप्पाइण्णा वित्ती' अल्पाकीर्णा वृत्तिरस्ति भिक्षाटने बहूनां जनानां संबाधो न भवति 'पण्णस्स णिकक्खमणपवेसणाए' प्राज्ञस्य साधोः निष्क्रमणप्रवेशनाय उपाश्रयादौ निर्गन्तु प्रवेष्टुश्च न कापि बाधा जायते, 'पण्णस्स वायणपुच्छणपरियट्टणाणुपेहाधम्माणुओगचिंताए' प्राज्ञस्य साधोः वाचनपृच्छापरिवर्तनानु. प्रेक्षाधर्मानुयोगचिन्तायै वाचनादिपञ्चविधस्वाध्यायेषु कापि बाधा न संमबति 'सेव णच्चा' स साधुः एवम्-उक्तरीत्या ज्ञात्वा विज्ञाय 'तहप्पगारं गामं वा णयरं वा' तथाप्रकारम् उपर्युक्तरूपं ग्रामं वा नगरं वा 'खेडं वा कबडं वा' खेटं वा कर्बर्ट वा 'मडंबं वा' मडम्बं वा 'पट्टणं वा' समणमाहण' जहां पर कि बहुत से श्रमण शाक्य चरक प्रभृति साधु संन्यासी एवं ब्राह्मण तथा-'अतिहीकिवणवणीमगा' अतिथि अभ्यागत और क्रपण दीन अनाथ दरिद्र एवं वनीपक याचक भी 'उवागया' नहीं आये हैं और 'उवागमिस्संति वा' और आने वाले भी नहीं है तथा 'अप्पाइपणा वित्ती' अल्प थोडे ही आकीर्ण-संकीर्ण अर्थात् लेशमात्र ही संकुचित वृति है थाने सभी उदार विचार वाले होने से संकुचितवृत्ति वाले नहीं है वह ग्रामादि 'पण्णस्स णिक्खमण पवेसणाए' प्राज्ञ संयमशील साधु को निष्क्रमण प्रवेश के लिये योग्य ही माना जाता है एवं 'वायणपुच्छणपरियणानुपेह' वाचन धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन करने के लिये और प्रच्छन आचार्य उपाध्याय से पूछने के लिये तथा परिवर्तन आवर्तन आवृत्ति करने के लिये एवं अनुप्रेक्षा मनन करने के लिये और 'धम्माणुजोगचिंताए' और धर्मानुयोग चिंतन करने के लिये भी योग्य ही समझना चाहिये इसलिये 'सेवं णच्चा तहप्पगारं गाम वा, णयरं वा खेडं वा, भयत सुखम ३ ४ भणी ॥ तम डाय तथा ‘णो जत्थ समण माहण अतिहि' न्यां घ श्रम-१७यय२४ विगेरे साधु सन्यासि तथा प्रामा तथा अतिथि किवणवनीमगा आगया' ५५ तीन मनाथ हरिद्र तथा या भाव्या न हाय भने 'उबागमिस्संति का आना ५ न डाय 'अप्पाइण्णा वित्ती तथा थोडी ४ सथित वृत्ति હોય અર્થાતુ બધા જ ઉદાર વિચારવાળા હેવાથી સંકુચિત વૃત્તિવાળા નહિવત હય “quTस्त णिक्खमणरवेसणार' मे मा सयमशील साधुने निष्भ मने प्रवेश भाटे योग्य मानवामां आवे छे. तथा 'वायणपुच्छणपरियट्टणाणुप्पेह' पायन पामि २५६ययन માટે અને પ્રચ્છન આચાર્ય અને ઉપાધ્યાયને પ્રશ્નો પૂછવા માટે તથા પરિવર્તન આ. पनि ४२५। भाटे तथा अनुप्रेक्षा मनन ३२वा मार्ट तथा 'धम्माणुजोगचिंताए' धर्मानुयारानु यितन ४२५॥ भाट ५५ योग्य समनपी. 'सेवं णच्चा गाम वा णयर वा' मा प्रमाणे wधी ते १२णता ये मम नरमा 'खेडं वा मडंब वा' मेट-नाना भाममा श्री माया सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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