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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. ३ सू० ४३-४४ शय्येषणाध्ययननिरूपणम् ४१ अभ्यञ्जनं कुर्वन्ति 'मक्खेति वा' यावत् मृक्षयन्ति वा शरीरावयवहस्तपादादिमर्दनं कुर्वन्ति या नहि 'णो पण्णस्स' नो प्राज्ञस्य संयमशीलस्य साधोः "णिक्षमणपवेसणाए' निष्कमणप्रवेशनाय निष्क्रमितुं प्रवेष्टुं वा कल्पते 'जावऽणुचिंताए' यावद् अनुचिन्तायै स्वाध्यायानुचिन्तनार्थमपि एवं विधोपाश्रयो न कल्पते इति शेषं तदुपसंहरबाह-'तहप्पगारे उपस्सए' तयाप्रकारे पूर्वोक्तरूपे उपाश्रये यभिकटे गृहपत्यादयः अभ्यञ्जनं कुर्वन्ति तत्रेत्यर्थः 'गो ठाणं चा' नो स्थानं वा कायोत्सर्गरूपं ध्यानम् 'सेज्ज वा' शय्या या संस्तारकम् 'जाव चेतेज्जा' यावत् निषेधिकां वा स्वाध्यायभूमि चेतयेत् कुर्यात् तथा सति संयमविराधना स्यात् ॥४३॥ मूलम् -से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उपस्सयं जाणिजा, इह खलु गाहावइ वा गाहावइभारिया वा गाहावइभागिणि वा गाहायइ पुत्तो वा गाहावइधूए वा गाहावइसुण्हा वा धाई वा दासो वा जाय कम्मकरीओ वा अण्णमण्णस्स गायं सिणाणेण वा कक्केण वा लोदेण या वण्णेण वा चुण्णेण या पउमेण या, आघसंति या पसंति या उव्यचा मक्खंति या अभ्यंगनस्नान 'मालीश' करते हैं या मृक्षण मर्दन अभ्यंगन स्नान (मालीश) करते है तो 'णो पण्णस्स णिक्खमणपवेसणाए जाव अणुचिंताए' प्राज्ञ संयमशील साधु को इस प्रकार के उपाश्रय में निष्क्रमण निकलने के लिये तथा प्रवेश करने के लिये एवं यावत् स्वाध्याय का मनन रूप अनुचिन्तन करने के लिये भी नहीं रहना चाहिये इस ताप्तर्य से कहते हैं कि 'तहपग्गारे उवस्सए' इस प्रकार के उपाश्रय में 'णो ठाणं वा स्थान ध्यान रूप कायोत्सर्ग के लिये स्थान ग्रहण नहीं करना चाहिये एवं 'सेज्जं या शय्या यावत निषीधिका स्वाध्याय करने के लिये भ्रमि ग्रहण भी नहीं करना चाहिये क्योंकि उस उपाश्रय में निकट में गृहस्थ वगैरह को तैलादि मर्दन करते हुए देखकर संयम आत्म विराधना हो सकती है ॥ ४३॥ 'अभंगेति वा' मस्यन अर्थात् मालीश ४२ छे अथवा 'मक्खंति वा' भनि ४२ छे. तो तथा पाश्रयमा ‘णो पण्णस्स णिक्खमणपवेसणाए' प्राज्ञ मर्यात सयमसार साधुमे थापा मारना ॥श्रयमा नि भाटे प्रदेश ४२व। माट 'जाव अणुचिंताए' यापत् स्वाध्यायन भनन ३५ मनुयतन ४२वा भाटे ५] २२ नही. 3 34 'तहप्पगारे उयस्सए' २4॥ २॥ उपाश्रयमा णो ठाणं वा' स्थान-ध्यान३५ योस ७२१॥ भाट स्थान घडण ४२ नही तथा 'सेज्जं वा' शव्या सथा। ५५ ५।५२॥ नही मन यावत् 'निसीहियं वा चेतेज्जा' निपाधि। अर्थात् स्वाध्याय ४२५॥ भाट भूमि ५५ ५४९ કરવી નહીં કેમ કે-એ ઉપાશ્રયની સમીપમાં ગહસ્થ વિગેરેને તેલ વિગેરેનું મર્દન કરતા २ सयम माम विराधन थाय छे. स. ४३ ॥ आ०५६ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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