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आचारांगसूत्रे 'जं तहप्गगारे' यत् तथा प्रकारे पूर्वोक्तरूपे 'उपस्सए' उपाश्रये 'पुरा हत्थेण' पूर्व हस्तेन वा संस्पृश्प निक्समिज्ज वा पविसिज्ज वा' निष्क्रामेद् वा प्रविशेद् वा' 'पच्छा पाएण' पश्चात् पादेन निष्क्रामेद् वा प्रविशेद बा, 'तओ संजयामेय निक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा' ततः तदनन्तरं संयत एव यतनापूर्वकमेव निष्क्रामेद् वा प्रविशेद् वा इति ॥सू० ३७॥
मूळम्-से आगंतागारेसु वा अणुवीइ उवस्सयं जाएजा, जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिट्ठाए, ते उपस्तयं अणुण्णवेज्जा, कामं खलु आउसो अहालंदं अहापरिष्णात वसिस्सामो जाच आउसंतो जंवा आउसंतस्स उयस्तए जाय साहम्मियाए तओ उवस्तयं गिहिस्सामो तेण परं विहरिस्सामो ॥सू० ३८॥ डालेगा और मार डालेगा 'अह भिक्खूणं पुव्वोचदिटुं' अथ और भिक्षुकों के लिये पूर्वोपदिष्ट अर्थात् वीतराग भगवान् श्रीमहावीर स्वामीने पहले ही उपदेश दिया है कि जं तहप्पगारे उवस्सए' इस प्रकार के छोटे द्वार वाले और अत्यंत छोटे तथा नीचे एवं चरकशाक्य वगैरह श्रमणों से ठसमठस भरे हुए उपाश्रय में 'पुरा हत्थेण' पहले हाथों से उपाश्रय स्थोन को संस्पर्शके द्वारा अच्छी तरह टटोलकर देखभाल करके उस उपाश्रय से 'णिक्खमिज वा पविसिज वा' निकले तथा अंदर प्रवेश करें 'पच्छा पायेण' बादमें पादों से यातायात करे
और 'तओ संजयामेव' और उसके बाद संयत होकर ही यतना पूर्वक उस नपाश्रय से 'निक्समिज वा परिसिज्ज वा' बाहर निकले या उस उपाश्रय के अंदर प्रवेश करें क्योंकि संयम का पालन करना ही साधुओंका परम कर्तव्य माना जाता है इसलिये संयम नियम पालनार्थ यतना पूर्वक ही आवे जावें अन्यथा देख भाल किये विना जाने आने से संयम आत्म विराधता होगी॥३७॥ यदिदं तथा साघुमाने पूर्व पहिष्ट मात् पीत महावीर प्रभु परमेथी ०१ अपक्ष ४३४ छ ... 'जं तहप्पगारे उवस्सए' २५0 शतना नाना द्वारा तय सत्यत नाना भने नी। मेय' य२४ ४५ विगेरे माथी सास लरेसा पाश्रयमा 'पुरा हत्थेण' पसi लायाथी 60यना २थानने २५ वा। सारी श स या पछी 'निक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा' से 3400५ ५७२ नी॥ २५१२ प्रवेश ७२i आने 'पच्छा पाएण वा' ५छीथी पायी गमन समन ४२ 'तओ संजयामेव णिक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा' તે પછી સંયમ પૂર્વક યાતનાથી એ ઉપાશ્રયમાંથી બહાર જવું અથવા એ ઉપાશ્રયમાં પ્રવેશ કરે કેમ કે-સંયમનું પાલન કરવું એજ સાધુઓનું પરમ કર્તવ્ય માનવામાં આવેલ છે. તેથી સંયમ નિયમના પાલન માટે યતના પૂર્વક જ આવવું જવું. દેખ્યા કે જોયા વિના જવા આવવાથી સંયમ આત્મ વિરાધના થાય છે. આ ૩૭
श्री. मायागसूत्र:४