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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. १ सू० २७ शय्येषणाध्ययननिरूपणम् ३८९ खलु गृहपतिप्रभृतीनाम् आचारगोचरः साध्वाचारविचारः नो मुनिश्चितो भवति, ते किल श्राद्धा गृहपत्यादयो वस्तुतो जैनमुन्याचारविचारं सुनिश्चित रूपेण न जानन्ति किन्तु 'तं सदहमाणेहि' तं जैनसाधुं श्रद्धानः श्रद्धावद्भिः 'पत्तिपमणेहिं प्रतीयमानः विश्वसद्भिः 'रोयमाणे हिं' रोचमानैः प्रीतियुक्तैः गृहपतिप्रभृतिश्राद्धैः 'बहवे समणमाहण अतिहिकिवणवणीमए' बन् श्रमणब्राह्मण-अतिथिकृपणवनीपकान्-शाक्यचरक साधु. संन्यासिप्रभृतिश्रमणान् ब्राह्मणान्' अतिथीन् कृपणान् वनीपकान् दीनयाचकदरिद्रान् 'समुद्दिस्स' समुद्दिश्य 'तत्थ तत्थ अगारीहिं' तत्र तत्र तत्तत्स्थानेषु अगारिभिः सागारिकैः गृहस्थश्राद्धै रित्यर्थः 'अगाराई' अगाराणि मन्दिराणि धर्मशालाप्रभृतिमठानि 'चेइयानि भवंति' भार्या हो गृहपति का पुत्र हो या गृहपति की कन्या हो या गृहपति की पुत्रवधू हो या धात्री-धाई हो यावत्-दास हो या दासी हो अथवा कर्मकर-नौकर हो या कर्मकरी नोकरानी हो इन में से कोई एक श्रद्धाशील प्रकृतिभद्र श्रावक हो सकता है । 'तेसिं च णं आयारगोयरे णो सुनिसंते भवई' उन सबको साधुके आचार विचार का पता नही रहता है अर्थात् ते गृहपति-वगैरह श्रद्धाशील श्रावक वास्तव में जैन मुनियों के आचार विचार को सुनिश्चित रूप से यद्यपि कहीं जानते है तथापि 'तं सद्दहमाणेहिं पतियमाणेहि' केवल उस जैन साधु मुनि महात्मा को श्राद्वा भक्तिपूर्वक देखते हुए और विश्वास करते हुए और-रोय माणेहि-' प्रीती भाव रखते हुए-'बहये समणमाहण अतिहि' गृहपति अतिहि' - गृहपति वगैरह श्रद्धालु आवक हतों श्रमण चरकशाक्य प्रभृति साधुको एवं ब्राह्मणां को तथा अतिथियों को एवं-'किवणवणीमहि समुहिस्स-कृपण दीन दुःखी दरिद्रों को एवं बनीपक यावकों को लक्ष्यकर-'तत्थ तत्थ' उन उन आवश्यक स्थलो में वे आगारिही आगाराई' सागारिक गृहस्थ श्रद्धालु श्रावक राय मा 'सुण्हा वा' ७५तिनी १५ डाय अथवा 'धाई वा' पाहाय मथ। 'जाव कम्मकरी वा' यावत् हास डाय अ सा डाय २५२१। म ४२ ४२ डाय 244॥ ४भरी ने।४२नी पत्नी हेय 'तेसिं च णं आयारगोयरे' तमामाथी । श्रद्धाशी प्रतिमा श्राप डाय छे. ते मधाने ‘णो सुनिसंते भवइ' साधु सोना पाया२ વિચારની જાણ હોતી નથી અર્થાતુ એ ગૃહપતિ વિગેરે શ્રદ્ધાશીલ શ્રાવક ખરી રીતે જૈન भुनियाना या२ विया२२ निश्चित रीत Agता नथी. तो ५ 'तं सदहमाणेहि पत्तियमाणेहिं' है ये न साधु भनिने श्रद्धा मत पूर्व ने विश्वास४२।। 'रोयमाणेहिं' ४२ प्रतिमा २५। ५४१ मे १९५ति वि३ श्राद्ध गु श्रा५४ 'बहवे समणमाहण अतिहिकिवणवणीमए' ५। मेवा श्रम-५२४२॥३५ विगेरे साधुमे। मन माझ. शाने तथा मतिथियाने तथा १५ दीनदुःभी हरिद्राने तथा पती५४ यायाने 'समुद्दिस्स' श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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