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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. १ सू० ११ शय्येषणाध्ययननिरूपणम् ૩૪૭ वेद् वा, पुनः पुनः प्रक्षालयेद् वा 'गो तत्थ ऊसदं पकरेज्जा' नो तत्र-अन्तरिक्षस्थित द्विभूमिकोपाश्रयोप्रभागे उत्सृष्टम् - मूत्रपुरीपोत्सर्गम् प्रकुर्यात्-विदध्यात्, 'तं जहा-उच्चारं वा पासवणं वा' तद्यथा-उच्चारं वा प्रस्रवणं वा तत्र उच्चारं-मलोत्सर्गम्, प्रस्रवणम्-मूत्रणम् 'खेलं या सिंघाणं पा' खेलम्-कफम्, सिङ्घाणम्-नासिकामलम्, 'वंतं वा पित्तं वा वान्तम्-वमनम, पित्तम् 'पूयं वा सोणियं वा' पूर्ति वा विकृतशोणितम्, शोणितं वा 'अन्नयरं वा सरीरावयवं वा' अन्यतरद् वा अन्यत् किमपि शरीरावयवम्-शरीरावयवविकारम् नो तत्र कुर्यादिति पूर्वेणान्वयः 'केवली बूया' केवली केवलज्ञानी भगवान् श्रीमहावीरः ब्रूयात्-ब्रवीति-उपदिष्टवान किमित्याह-'आयाणमेयं' आदानम् कर्मागमनद्वारम् कर्मबन्धनकारणम्, एतत्-उपाश्रयद्विभूमिकादौ मलमूत्रादित्यागः तत्र मलमूत्रादित्यागेन कर्मबन्धनद्वारा संयमात्मविराधना संभवएज या' मुख को एक वार या अनेक वार भी नहीं प्रक्षालित करे अर्थात् बिमार साधु हस्त पाद वगैरह को उपाश्रय के ऊपर भाग पर शीतोदक वगैरह से नहीं धोए और 'णो तत्थ ऊसदं पकरेजा' तथा उस उपाश्रक के ऊपर अन्तरिक्ष भाग में स्थित दुमजले वगैरह महलों पर उत्कृष्ट-मूत्रपुरीषोत्सर्ग-शौचमल मूत्र स्याग नहीं करे क्योंकि ऊपर भाग में मल मूत्रादि त्याग करने से गन्दा होने के कारण जीव जन्तु की उत्पत्ति की संभावना रहती है इसलिये उस मलमूत्रादि को निषेध करने के लिये एक एक का नाम लेकर बतलाते हैं 'तं जहाउच्चारं वा पासवणं या' जैसे-उच्चार-मलत्याग, प्रस्त्रवण-मूत्रत्याग पेशाब करना तथा 'खेलं या सिंघाणं वा' खेल कफ तथा सिंघाण-नासिका मल तथा 'चंत या' पित्तं वा वान्त-वमन (उल्टी करना) एवं पित्त या पूय-पूति विकृत शोणित (परु प्यूज) तथो 'सोणियं वा अण्णयरं वा सरीरावयवं वा' शोणित इस तरह के शरीरावयव का विकारों को वहां पर नहीं करना चाहिये क्योंकि 'केवली ब्रूया-आयाणमेयं केवली-केवल ज्ञानी वीतराग भगवान् श्रीमहावीर स्वामीने फरमाया है कि-एतत-यह उपाश्रय के दुमजले वगैरह महलों के ऊपर અનેકવાર ધોવા નહીં અર્થાત્ બિમાર સાધુએ હાથપગ વિગેરેને ઉપાશ્રયના ઉપરના ભાગમાંથી शीत विस्थी धावा नही तथा ‘णो तत्थ ऊसढं पकरेज्जा' 2 पाश्रयाना S५२ मां રહીને મલમૂત્રનો ત્યાગ કરવો નહીં એ મલમૂત્રાદિના નામે લેખ કરીને નિર્દેશ કરે છે. 'तं जहा' भ3-उच्चारं वा पासवणं वा' उप्यार-भात्याग प्रसव-भूत्रत्यारा 'खेलं वा सिंघाणं वा' -त्याग ५॥ विगेरे तथा सा-नाने मे सीट विगैरे अथवा 'वंतं वा वान्त वमन टी पितं वा' तथा पित्त 'पूय' वा' ५३ मय। 'सोणिय वा' ३घिर 'अण्णयर वा सरीरावयवं वो' मारा शरीरावयवना विराने त्या ४२वा नही भ. 'केवलीबूया आयाणमेय' विज्ञानी सेवा पीत भावान महावीर २१ामी छ। આ ઉપાશ્રયને બે મજલા વિગેરે મહેલેની ઉપર મલમવાદિને ત્યાગ કરવે એ કર્માગમનનું श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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