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________________ ३४२ आचारांगसूत्रे 'ठाणाओ' स्थानात् एकस्थानात् 'ठाणं' स्थानम्-स्थानान्तरम् 'साहरइ' समाहरति-नयति 'बहिया' वा णिण्णक्खु' बहिर्वा निस्सारयति निष्काशयति 'तहप्पगारे' तथाप्रकारे-एवं भूते उपर्युक्तरूपे 'उवस्सए' उपाश्रये 'अपुरिसंतरकडे' अपुरुषान्तरकृते-दातृपुरुषनिष्पादिते 'बहिया अनिहडे' बहिरनिह ते-बहिर्नानीते 'अणिसिटे' अनिसृष्टे सर्वस्वाम्यननुमते 'अणतदहिए' अनतदर्थिक तदर्थ निष्पादिते 'जाव' यावत्-'अपरिभुक्ते 'अणासेविए' अनासेवितेअनुपभुक्ते उपाश्रये ‘णो ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा' नो स्थानं वा-कायोत्सर्गस्थानं, शया-संस्तारकस्थानं निषीधिकम् वा स्वाध्यायभूमि 'चेतेज्जा' चेतयेत्-कुर्यात् किन्तु 'अह पुण एवं जाणिज्जा' अथ-यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणस्वरूपम् उपाश्रयं जानीयात् तद्यथाजहां कि साधु के निमित्त असंयत-गृहस्थ श्रावक पीठ-पाट, फलक चौकी सीढी उदूखल-उखल मुशल वगैरह को एकस्थान से दूसरे स्थान पर ले जा रहा है या उपाश्रय से बाहर निकाल रहा है इस तरह के उपाश्रय में तथा जिसको कि 'अपुरिसंतरकडे' उसी दाताने बनाया है एवं 'बहिया अणीहडे' बाहर भी व्यवहार में नहीं लाया गया है तथा 'अणिसिट्टे' सभी स्वामी अधिकारीने अनुमति भी नहीं दी है और 'अणतदहिए जोव' उसी साधु के निमित्त बनाया भी गया है तथा यावत्-अभीतक किसी भी-गृहस्थोने उस उपाश्रय में निवास भी नहीं किया है और किसी से अभीतक 'अणासेचिए' आसेवित भी नहीं हुआ है इस तरह के उपाश्रय में 'णो ठाणं वा सेज वा ध्यान रूप कायोत्सर्ग के लिये स्थान ग्रहण नहीं करना चाहिये तथा शय्या-शयन के लिये संथरा भी नहीं बिछाना चाहिये और 'निसोहियं वा चेइज्जा' स्वाध्याय करने के लिये भी भूमि ग्रहण नहीं करना चाहिये क्योंकि उक्तरीति से अप्रासुक सचित्त का संपर्क से जीवजन्तु की हिंसा की संभावना रहती है और अपुरुषान्तर कृत वगैरह होने से आधाकर्मादि दोष भी लग सकता है किन्तु 'अहपुण एवं जाणिज्जा' નિસરણી કે ખારણીયે, સાંબેલુ વિગેરે એક સ્થળેથી બીજે લઈ જતા હોય કે ઉપાશ્રયની मडार ४६उता डाय मे ना उपाश्रयम तथा 'अपुरिसंतरकडे' २२ हाताये मनावर डाय तथा 'बहिया अणीहडे' महार व्यवहारमा सापामा मावस नाय 'अणिसिद्धे' या मालिसे समति मापस न डाय तवा तथा 'अणतददिए थे। साधुन उद्देशाने अनावेद हाय 'जाव अणासेविए' तथा सत्या२ सुधी ये मासेवित કરેલ ન હોય યાવત અત્યાર સુધી કોઈ ગૃહસ્થોએ ત્યાં વાસ કરેલ પણ ન હોય એ રીતના उपाश्रयमा ‘णो ठाणं बा' पान ३५ यास भाट स्थान र ४२ नही, 'सेज वा' तथा शव्या-- टस है सुपा माटे सथा। ५९५ पाथर। नही. 'निसीहियं वा चेइज्जा' તથા સ્વાધ્યાય કરવા માટે પણ એ સ્થાન ગ્રહણ કરવું નહીં. કેમ કે ઉક્ત પ્રકારથી સચિત્તના સંપર્કથી જીવજંતુઓની હિંસાની સંભાવના ત્યાં હોય છે તથા અપુરૂષાન્તરત विगेरे बाथी मायाह होषा ५ सागवाना सल५ २७ छ. ५२'तु 'अह पुण एवं श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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