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आचारांगसूत्रे हस्तगं वा 'परयायंसि वा' परपात्रे वा-गृहस्थपात्रगतं वा 'अफासुयं' अप्रासुकम् सवित्तम् 'अणेसणिज्ज' अनेषणीयम्-माधाकर्मादिदोषयुक्तं मत्वा लाभे सति 'णो पडिगाहिज्जा' नो प्रतिगृह्णीयात, तथाविधस्य बहुबीजकादियुक्तफलस्य साधूनां साध्वीनाञ्च संयमविराधकतया अकल्प्यत्वात्, यदितु 'से आहञ्च पडिगाहिए सिया' स भिक्षुः आहत्य-हठात् गृहस्थेन बहुबीजकफलं प्रतिग्राहितः स्यात् नर्हि 'तं नो हित्ति वइज्जा' तं-परं गृहस्थं बहुबीजफलप्रतिग्राहयितारं नो हि इति, बाढ मिति वा वदेव, णो अणिहित्ति वा पहज्जा' नो वा नहि इति न बाढम् इति वा वदेत्, अपितु मौनः सन् ‘से तमायाय' स भावभिक्षुः तम् सबीजफलरूपाहारम् आदाय-गृहीत्वा 'एगंतमवकमिज्जा' एकान्तम् निर्जनस्थानम् अपकामेत्निर्गच्छेन्, 'एगंत मवक्कमित्ता' एकान्तम् अपक्रम्य-निर्गत्य 'अहे आरामसि वा' अथ आरामे दिया हो, या गृहस्थ श्रावकके हाथ में ही हो या 'परपायंसि चा' गृहस्थ श्रावक के पात्र के अन्दर ही क्यों नहीं हो उसको 'अप्फासुयं अणेसणिज्ज' अप्रासुक सचित्त और अनेषणीय-आधाकर्मादि दोषों से युक्त 'मण्णमाणे' समझ कर 'लाभे संते' मिलने भी संयमशील सधु और साध्वी 'णो पडिग्गाहिज्जा' नहीं ग्रहण करे, क्योंकि उस प्रकार का बहुत बीज चाला फल तथा वडुत कांटावाला फल सचित्त और आधाकर्मादि दोषों से युक्त होने से साधु और साध्वी के संयम का विराधक होता है इसलिये साधु और साध्वी को वह नहीं खपता है, किन्तु इसतरह मना करने पर भी यदि वह गृहस्थ श्रावक-'से आहच्च पडिगाहिए सिया, तं णो हित्ति यइजा, णो अणिहित्तिवा वइजा' उस साधु को हठ से बहुत वीज वाला फल तथा बहुत कण्टक युक्त फल दे दे तो यह साधु उस गृहस्थ श्रावक को, बहुत अच्छ। ऐसा भी नहीं कहे और 'बहुत खराब है अच्छा नहीं' ऐसा भी नहीं कहे किन्तु मौन होकर ही 'से तमायाय' वह पूर्वोक्त संयमशील साधु उस बहुत बीज वाले तथा बहुत कोटे वाले फल को लेकर 'एगंतपात्रमा डाय ५ ते 'अप्पासुय' ते सथित्त भने 'अणेसणिज्ज मण्णमाणे' मनेषणीयमाया हाथी युद्धत सभने 'लाभे संते प्रान्त यतु डायत ५५ ‘णो पडिगाहिज्जा' સાધુ સાધીએ તે લેવું નહીં, કારણ કે એ રીત ના બહુ બીવાળા કે બહુ કાંટાવાળા ફળો સચિત્ત અને આધાકર્માદિ દેવાળા હોવાથી સાધુ સાધીને સંયમનાં બાધક છે. તેથી साधु साथी ते ५५ता नथी. २॥ शते ना या छतi ने ७२५ श्रा५४ 'से आहच्च पडिगाहिए सिया' से साधु साध्यान ४ पूर्व से हु मीयाम टाणा भाषी है तो साधु , सवा ते गृहस्थाने 'तं णो हित्तिवइज्जा' म सा३' तेमन हे मने ‘णो अणिहित्ति वा वइज्जा' 'म मराम छ सा३ नथा' सेभ ५५ न ४ . ५२'तु मौन मार से तमायाय' ते साधु है साथी से महु मीणामदु sil पास याने सन 'एगतमवकमिज्जा' मेiतम यास्या 'अहे आरामंसि वा' या
श्री मायारागसूत्र :४