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________________ २७६ आचारांगसूत्रे संयमवान् भिक्षः यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात, तद्यथा 'सिया खलु परो बहुबीयगेण बहुकंटगेण फलेण' स्यात्-यदि कदाचित् परः गृहस्थः बहुबीजकेन-अधिकबीजयुक्तेन, बहुकण्टकेन-अधिककण्टकयुक्तेन फलेन 'उवणिमंतेज्जा' उपनिमन्त्रयेत-आमन्त्रयेत, उपनिमन्त्रणप्रकारमाह-'आउसंतो समणा' आयुष्मन्तः ! श्रमणाः ! 'अभिकंखसि' अभिका क्षसि वाग्छसि 'बहुवीयअं बहुकंटगं फलं' बहुबीजकं बहुकण्टकं फलं 'पडिग्गहित्तए' प्रतिग्रहीतुम्-आदातुं-वाञ्छसि ? 'एतत्प्रकारम्-उपर्युक्तरूपम् ‘णिग्योसं' निघोपं ध्वनि 'मुच्चा' श्रुत्या 'णिसम्म' निशम्य-हृदये विचार्य से पुवामेव आलोइज्जा' स-भावभिक्षुः पूर्वमेवबहुवीजकफलग्रहणात्प्रागेव आलोचयेत्-पर्यालोच्य कथयेत्, कथनमकारमाह-'आउसोत्ति वा भगिणित्ति वा' आयुष्मन् ! इति वा, भगिनि ! इति वा क्रमशः पुरुषं स्त्रियश्च सम्बोध्य कथयेत्-‘णो खलु मे कप्पइ' नो खलु मे मह्यम् कल्पते उपयुज्यते 'बहुबीअगं बहुकंटगं साध्वी गृहपति गृहस्थ श्रावक के घर में यावत् पिण्डपात की प्रतिज्ञा से अर्थात् भिक्षा लेने की इच्छा से अनुप्रविष्ट होकर वह साधु और साध्वी ऐसा वक्ष्यमाण रूप से यदि जान ले कि-'सिया णं परो' यदि कदाचित् पर कोई गृहस्थ श्रावक 'बहुबीयए वा बहु बीजक-अधिक बीजवाले फल से और 'बहुकंटगेण या' बहु कण्टक बहुत कांटायाले 'फलेण' फल से 'उवणिमंतेजा'उपनिमन्त्रण-आमन्त्रण करे कि 'आउसंतो'आयुष्मन्त भगवान् !'समणा' श्रमण ! साधो ! आप अभिकंखसि बहुबीयं बहुकंटगें फलं' बहुत बीज वाले तथा बहुत काटावाले फवों को 'गहित्तए' लेना चाहते हैं ? अर्थात् आप बहु बीज युक्त एवं बहु कण्डक युक्त फल लेंगे? 'एयप्पगारं निग्धोसं सोच्चा, णिसम्म' इस प्रकार का श्रावक का उपयुक्त स्वरूप निर्घोष-शब्द को सुनकर और हृदय में विचार कर 'से पुवामेव अलोएज्जा' वह भाव साधु और भाव साध्वी बहुत बीज वाले फल को लेने से पहले ही सोच विचार कर कहे कि 'आउसोत्ति वा भगिणित्ति वा' हे आयुष्मन् ! श्रावक या हे भगिनि ! बहिन ! इस प्रकार पुरुष जाति को और स्त्री जाति को सम्बोवंजाणिज्जा' तमना gामा मेगाव, 'सिया णं परो वहुबीयएण' ४४ाय 31 स्य श्रा पधारे भी श्याथी मन 'बहुकंटगेण फलेण' घn xicाणा जी धन 'उवणिमंतेज्जा' मात्रय ४२ छ है 'आउसंतो समणा' 3 श्रम भगवन् ! 'अभिकंखसि बहुबीयअं बहुकंटग फलं पडिगाहित्तए' मा५ । पङ मी तथा मटाया जाने या धरछ। छ।? 'एयप्पगारं णिग्योसं सोच्चा' मा प्रभारी श्रापउने। सवा सांसजीन 'णिसम्म' मन इयमा विया२ ३रीने ते साधु साधी 'से पुव्वामेव' ये बहुमी म in वामा जान खेत पडेai or 'आलोएज्जो' मायन। ४२ची मने मायना ४ मा हे 'आउसोत्ति वा भगिणित्ति वा' 3 मायुष्मन् श्राप ! २५५५। उ मन मा प्रभानु समाधन ४री यु -'णो खलु मे कप्पइ से बहुकंटए बहुबीय फलं पडिगाहित्तए' श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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