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________________ २६४ आचारांगसूत्रे इति पूर्वेणान्वयः 'तं जहा-आयरिए वा तद्यथा-आचार्यों वा-अनुयोगधरः 'उवज्झाए वा' उपाध्यायो वा-अध्यापकः, 'पवित्ती वा' प्रवर्ती वा-यथायोगं साधूनां वैयावृत्त्यादौ प्रवर्तकः 'थेरे वा' स्थविरो वा-संयमपालने विषीदतां श्रमणानां स्थिरसम्पादकत्वात् स्थविर साधुविशेष उच्यते 'गणी वा' गणी वा-गच्छाधिपो वा 'गणहरे वा' गणधरो वा-आचार्यसदृशो गुरोराज्ञया साधुगणं गृहीत्वा पृथयविहरणशीलः 'गणावच्छेइए वा' गणावच्छेदको वा-गणकार्यचिन्तकः 'अवियाई एएसि खद्धं खलु दाहामि' अपि च उपयुक्ताचार्यादिमुद्दिश्य एतद वदेत-यद हमे तेभ्य भवदनुज्ञया प्रभूतं प्रभूतम्-अधिकमधिकं दास्यामि तदेवम् ‘से सेवं वयंतं परो वइज्जा' अथ तम् एवम्-उत्तरीत्या वदन्तं साधुम् परः आचार्यादिः वदेत, किं वदेदित्याह परिचित बहुत से साधु हैं 'तं जहा-आयरिए वा, उज्झाए वा, पवित्तीचा, थेरे वा, गणी वा, गणहरे व, गणावच्छेइए चा, अवियाई एएसिं खद्धं खर्चा दाहामि' जैसे कि-आचार्य-अनुयोगधर, एवं उपाध्याय अध्या क, तथा प्रवर्ती-यथा संभव साधुओं की वैयावृत्ति-सेवा वगैरह का प्रवर्तक एवं स्थविर अत्यन्त प्रतिष्ठित साधु विशेष जो कि संयम का पालन करने में दुःखी होने वाले श्रमणों को संयम पालन में स्थिर करते हैं उन को स्थविर कहे जाते हैं अथवा गणी-गच्छ का अधिपति, या गणधर-आचार्य सदृश, जोकि गुरू की आज्ञा से साधुगण को साथ लेकर पृथक् विहार करने वाले होते हैं उन को गणधर कहा करते हैं एवं गणावच्छेदक-गणकार्य का चिन्तक, इतने हमारे परिचित हैं इसलिये इन सब को आप की आज्ञा-अनुज्ञा से मैं पुष्कल-अधिक अशनादि चतुर्विध आहार जात देना चाहता हूं ऐसा वह साधु उपर्युक्त आचार्य वगैरह को उद्देश कर उन सभी साधु मण्डल को कहे 'से सेवं वयंतं परो चइज्जा-कामं खलु आउसो! अहापज्जतं णिसिराहि' बाद में उस में उक्तसाधुसो छ. 'तं जहा' म 'आयरिए वा' मायाय 'उवज्झाए वा' तथा याय मात अध्या५४ तथा 'पवित्ती वा' प्रपती-यथासमय साधुमानी सेवा विगेरेना प्रवत तथा 'थेरे वा स्थापि२ मत्यत प्रतिष्ठित साधु विशेष रे सयमाना पालन ४२यामा भी यना। શ્રમણને સંયમ પાલનમાં સ્થિર કરે છે. તેમને સ્થવિર કહેવામાં આવે અથવા “જાળી वा' ॥२७॥ मधिपति 'गणहरे वा' ५२ मायानी स२मा । २३नी साशाथी સાધુગણતે સાથે લઈને જુદે વિહાર કરનારા હોય છે. તેમને ગણધર કહેવાય છે “Trt वच्छेइए वा' गायछे।४ अर्थात गाना पिया२४ २५।। मा। परिचित छ तथा ॥ 'अवियाई एएसिं खद्धं खलु दाहामि' याने मायनी सम्मतिथी हु मEि Hशन यतुविध આહાર જાત આપવા ઇચ્છું છું. એ રીતે તે સાધુ ઉપરોક્ત આચાર્ય વિગેરેને ઉદ્દેશીને से सपा साधु भगने 3 से सेवंवयंत परो वइज्जा' ये रीते तां मेवा साधुने साधु भगन भुज्य माया , 'काम खलु आउसो अहापज्जत्तं णिसिराहि' श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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