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________________ २०४ आचारांगसूत्रे धपनोदार्थ सकृदापीडनं कृखा 'परिवीलियाण' परिपीडय वारंवारं परिपीडनं कृत्वेत्यर्थः, एवं परिसावियाण' पारिस्राव्य-निर्माल्य 'आहटु दलइज्जा' आहृत्य-आनीय दद्यात् तर्हि 'तथाप्रकारम् आमदितं निर्गालितञ्च 'पाणगजायं' पानकजातम् उद्गमदोषदुष्टम् 'अप्फासुयं' अप्रामुकम् सचित्तम् 'लाभे संते' लामे सति 'णो पडिगाहिज्जा' नो प्रतिगृह्णीयात्, तथाचोक्तरीत्या आमर्दितं निर्मालितञ्च पानकजातम् सचित्तत्वात् उद्गमदोष दुष्टत्वाच्च साधुभिः साध्वीभिश्च न ग्रहीतव्यम् । ते च पोडश उद्गमदोषाः 'आहाकम्मु १ देसिम २ पूनीकम्मे ३ अमीसजाए ४ अाठवणा ५ पाहुडियाए ६ पाओअर ७ कीय ८ पामिच्चे ९॥ परियट्टिएय १० अभिहडे ११ उब्भिन्ने १२ मालोहडे १३ इभ । अच्छेज्जे १४ अणिसढे १५ 'छच्चेण या' यांस की त्वचा से निर्मित 'दूसेण वा वस्त्र से या 'वालगेण वा' चमरी गाय के बाल से निर्मित चामर से 'आपिलियाणं परिवीलियाणं' त्वचा बीज वगैरह को हटाने के लिये एक चार या अनेक वार परिपीडन कर और 'परिसा. चियाए' निगाल-निचोर करके आहृत्य लोकर दद्यात् दे तो 'तहप्पगारं पाणगजायं अप्फासुयं लाभे संते णो पडिगाहिज्जा' तथा प्रकारं पानक जातम्' उस प्रकार का आमर्दित और निचोरकर लाया गया पानक पानी को उद्गमदोष से दृष्ट और अप्रासुक-सचित्त अनेषणीय समझकर मिलने पर भी साधु और साध्वी उसको नहीं ग्रहण करे क्योंकि उक्तरीति से आमर्दित और निचोर कर लाया हुआ पानी सचित्त और उद्गम दोषों से दुष्ट होने के कारण संयम-- आत्म-विराधक होने से साधुओं और साध्वियों को नहीं लेना चाहिये, उदगम दोष सोलह प्रकार के माने गये हैं-जैसे-'आहाकम्म' आधाकर्म २-उद्दे. सिय उद्देशिकम् उद्देशिक ३-पूतीकम्मे' पूतिकर्म, ५'-अमीसजाए' मिश्रजातम् ५ अ ठवणा' स्थापना, ६-'पाहुडियाए' प्राभृतिका, ७-'पाओअर' प्रादुष्करणम् प्रादुष्करण,८-'कीय'-क्रीतम्-क्रोत,९-'पामिच्चे' प्रामित्यम्-प्रामित्य,१० परियविगेरेन (२ ३२वा से पार उसावेद अथवा 'परिवीलियाण' वारंवार परिचाउन १२ भने 'परिसावियाण' नायवीर 'आहटु दलइज्जा' सापान मापे तो तह पगारं पाणगजाय' तवा २नु पानnd-ujी 'अप्फासुय' मासु४-सयित्त समलने 'लामे संते' प्रात याय ते ५ णो पडिगाहिज्जा' साधु मया साध्या ये ९५ ४२ नही. भ3-60 પ્રકારથી આમર્દન અને નીચાવીને લાવેલ પાણી સચિત્ત અને ઉદ્દગમ દોષથી દુષિત હેવાથી સંયમ–આત્માના વિરાધક હોવાથી સાધુ અને સાધ્વીએ લેવું ન જોઈએ. हम दोष सो प्रसन। भानामा मा छे २ -१ 'आहाकम्म' मायाम २ 'उद्देसिय' शिर, ३ 'पूतिकम्मे अ' ५तिम ४ 'मीसजाए अ,' भिन्नत ५ 'ठवणा अ,' स्थापना ६ 'पाहुडियाए' प्रभृति। ७ 'पाओअरा' प्रा०४२४४ ८ कीय' ही ९ 'पामिच्चे' प्राभित्य १० परियट्टिए' ५३१त न ११ 'अभिहडे' माहत १२ 'उन्भिन्ने' लिन्न १३ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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