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________________ १७८ आचारांगसूत्रे दातुम् 'मट्टियाओलित्तं' मृत्तिकोपलिप्तम्-मृत्तिकोपलिप्त पिठरकादिभाजनस्थितम् 'असणं या पाणं वा खाइमं साइमं वा' अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिङ वा चतुर्विधमाहारजातम् 'उभिदमाणे' उद्भिन्दन् मृत्तिकोपलिप्त पिटरकादि भाजनस्य उद्भेदनं कुर्वन् 'पुढपिकायं' पृथिवीकायम्-पृथिवीकायजीवम् 'समारंभिज्जा' समारमेत-समारम्भं कुर्यात् हिंस्यादित्यर्थः 'तहा तेउवाउवणस्सइतसकायं समारंभिजा' तथा तेजो-वायु-वनस्पति-त्रसकायान् समारभेत-हिंस्यात किश्च मृत्तिकोपलिप्तपिठरकादिभाजनं विस्फोटन्य साधवे अशनादिके दत्ते सति उत्तरकालम् 'पुणरवि ओलिंपमाणे' पुनरपि अवलिम्पन्-अवशिष्टाशनादिरक्षार्थ तदभाजनावलेपनं कुर्वन् 'पच्छाकम्म करिज्जा' पश्चात् कर्म कुर्यात-पश्चात्कर्मदोषयुक्तो भविष्यति 'अह मिक्खूणं पुयोवदिट्ठा एस पइण्णा' अथ तस्मात् भिक्षूणां साधूनां साध्वीनाश्च कृते आहार को नहीं ग्रहण करने का कारण बतलाते हैं-'असंजए भिक्खुपडियाए असंयत-गृहस्थ श्रावक भिक्षुककी प्रतिज्ञा से साधु को भिक्षा देने की इच्छा से 'मिडिओवलितं मिट्टी से अवलिप्त पिटार वगैरह में स्थापित 'असणं वा पाणं या' अशनादि चतुर्विध आहार जात को 'उभिजमाणे' उभेदन करते समय अर्थात अशनादि आहार का आधार भूत मिट्टी से अवलिप्त पिटोर वगैरह का उद्भेदन करते समय 'पुढवीकार्य समारंभिज्जा' पृथिवीकायिक जीवकी हिंसा करेगा तथा 'तहा' इसी प्रकार 'तेऊयाऊवणस्सइ' तेजस्काय-वायुकाय-धनस्पतिकाय और 'तसकायं' त्रसकाय-दीन्द्रियादि जीवों की भी 'समारंभिजा' हिंसा करेगा, और 'पुणरवि ओलिंपमाणे' 'पुनरपि पश्चात् कर्म कुर्यात्' मिहि से अवलिप्त पिटार वगैरह पात्रको खोल कर साघु को भिक्षा देने बाद भी अबशिष्ट अशनादि आहार जात को बन्द करने के लिये फिर से मिट्टी द्वारा उस पात्र का अचलेप करने पर 'पच्छाकम्मं करिजा' पश्चात कर्म नाम के दोषों से युक्त होना पडेगा किन्तु 'अह भिक्खुणं पुचोवदिट्ठा' भिक्षुणां पूर्वोपदिष्टा एषा प्रतिज्ञा एष हेतुः, एतत् कारणम् इसलिये भिक्षुककों-भाव साधुओं और भिक्षुकी-भाव भापवानी ४२४ाथी 'मट्टिओवलित्तं' भाटिया सीपेट पात्रमा रामेट 'असणं वा पाणं वा खाइम वा साइम वा' मनाहि यतुर्विध माडा२ गतने 'उन्भिदमाणे' मेहन ती વખતે અર્થાત્ અશનાદિ આહારના આધારૂપ માટિથી લીધેલ પાત્રને ઉદ્દન કરતાGusai 'पुढविकाय' पृथ्वी यि पनी 'समारंभिज्जा' ४२ तेमन 'तेउवाउवणरसइतसकाय समारंभिज्जा' ते४४ाय, पायुय, वनस्पतिय, भने सय-दीन्द्रियावानी પણ હિંસા કરશે અને ફરીથી પણ માટિથી લીધેલ પાત્રને ખોલીને સાધુને ભિક્ષા આપ્યા ५छीथी ५५५ 'पुनरविओलिंपमाणे' माडी २९३ मशन मा.२ समूडने मन्५ ४२१॥ भाट शथी मार द्वारा ते पात्रने disqाथी (मी ५पाथी) 'पच्छाकम्म करिज्जा' ५श्चात् ४भ नामना होषयी इषित वाशे 'अह भिक्खुणं पुव्वोवदिवा एस पइण्णा' तेथी भा५ साधु भने माय श्री मायारासूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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