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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ ७ सू० ६५ पिण्डेषणाध्ययननिरूपणम् १७१ विधम् भियादौ उपरिभागे स्थापितम् 'मालोहडे' मालोहतम् - मित्याद्युपरिभागत अवतार्य आनीतम् 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा' अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वाचतुर्विधम् आहारजातम् 'अप्फासूर्य' अप्रामुकम् सचित्तम् ' णो पडिगाहिज्जा' नो प्रतिगृह्णीयात् सचिचत्वात् आघाकर्मादिदोषयुक्तत्वाच इति 'केवलीवूया' केवली केवलज्ञानी भगवान् महावीरः ब्रूयात् ब्रवीति उपदिशतीत्यर्थः किं तदाह - " आयाणमेयं' आदानम् - कर्मागमनद्वारम् कर्मबन्धहेतुः, एतत् - भित्त्याद्युपरिस्थापितम् अशनादिकमाहारजातमित्यर्थः, कथं कर्मादान हेतुरेतदित्याह - 'असंजए' असंयतः - गृहस्थः भिक्षादाता 'भिक्खुपडियाए ' भिक्षु प्रतिज्ञया - साधुनिमित्तम् साधवे भिक्षां दातुमित्यर्थः 'पीढं वा फलगं वा' पीठं वाकाष्ठपीठकम् फलकम् वा - काष्ठपट्टकम् 'निस्सेर्णि वा उदूहलं वा' निश्रेणि वा सोपानरूपाम्, उदुखलं वा-उलूखलरूपम् 'आहटु उस्सविय दुरुहिज्जा' आहृत्य - आनीय उत्सृज्य ऊर्ध्व पगारं मलोहर्ड' उस प्रकार के भित्ति दीवाल वगैरह के ऊपर भाग पर स्थापित और भित्ति वगैरह ऊपर के भाग से उतार कर आनीत-लाया हुआ 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा' अशनादि चतुर्विध आहार जात को 'अप्फासुर्य' अप्रासुक-सचित्त और अनेषणीय-आधाकर्मादि दोषों से युक्त समझकर साधु और साध्वी 'लाभे संते णो पडिगाहिज्जा' मिलने पर भी उसे ग्रहण नहीं करें क्योंकि 'केवली बूया आयाणमेयं' केवली- केवलज्ञानी भगवान् महावीर प्रभु कहते हैं कि - एतत् इस प्रकार का दीवाल वगैरह ऊपर भाग में लटकाए हुए अशनादि चतुर्विध आहार जात 'आदान' कर्मबन्ध का कारण होता है क्योंकि 'असंजए भिक्खुपडि - याए' असंयत-गृहस्थ श्रावक भिक्षुकी प्रतिज्ञा से साधु को भिक्षा देने की इच्छा से 'पीठंवा फलगं वा' पीठ-काष्ठ की चौकी को या फलक-काष्ठ के पाटा को या 'णिस्सेणि वा' निश्रेणी - सोपान पगधिया या सीढी को या 'उदूहलं वा आहहूड' उदूखल - - उखडी को लाकर और 'उस्सविय दुरूहिजा' ऊपर में उसको रखकर માજોä' તેવા પ્રકારનુ ભીત કે થાંભલા વિગેરેની ઉપરના ભાગમાં રાખવામાં આવેલ તેમજ लींत विगेरेनी उपरना लागथी बाबीने आपवामां आवे 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा' अशन, पान, माहिम भने स्वाहिम मे थार अारना आहार ललने 'जाव अफाय' सत्ति भने अनेषणीय-आधा महिषो वाणु सभलने साधु ने साध्वी 'लाभेसंते णो पडिगाहिज्जा' प्राप्त थाय तो पशु ते श्रवु नहीं भ 'केवलीबूया आयाणमेय' पणज्ञानी लगवान् महावीर अलु उधुं छे हैं या रीते लात વિગેરેના ઉપરના ભાગમાં લટકાવેલ અશનાર્દિ ચતુર્વિધ આહાર જાત આદાન-નાકમ`બ ધના ४.२३५ थाय छे, भ 'असंजय भिक्खुपडियाए' गृहस्थ श्राप साधुने लिक्षा आपवानी धन्छाधी 'पीढं वा फलंग वा' आउडानी थोडी अथवा लाउडा पाटला अथवा 'णिस्सेणि वा उदूहले वा' नीसरशी अथवा मारीयो 'आहद्दु उस्सविय दुरुहेज्जा' लावीने तेने શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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