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आचारांगसूत्रे पथावलीवादियुक्तेन मार्गेण गच्छेदिति, तथा सति दुष्टवलीबर्दादि युक्तमार्गेण गमने आत्मविराधना स्यात्, तस्माद अन्यमार्गेणैव भिक्षार्य भिक्षुकेण गन्तव्यम् नतु उपर्युक्तेन सरलेनापि मार्गेण इति भावः ॥ सू० ४८ ॥
मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाव पविटे समाणे अंतरा से ओवाओवा, खाण वा, कंटए वा घसी वा, भिल्लूगा या, विसमे वा, विजले वा परियावजिजा, सति परक्कमे संजयामेव परकमेज्जा णो उज्जुयं गच्छिज्जा ॥सू० ४९॥ ___ छाया-स भिक्षुको वा भिक्षुकी वा गृहपतिकुलं यावत् प्रविष्टः सन् अन्तरा तस्य अबपातो वा, स्थाणुर्वा, कण्टको वा, घसी वा, भिलूगो वा, विषमो वा, विज्जलं वा परितापयेत, सति पराक्रमे संयत एव पराक्रामेत्, नो ऋजुना गच्छेत् ॥ सू० ४९॥ ___टीका-भिक्षार्थमटतो भिक्षुकस्य पथ्युपयोग कर्तुं प्रतिपादयति-से भिक्खू वा, भिक्खुपेहाय' अर्थात् प्रति पथ मार्ग को रोक कर खडा है ऐसा देखकर या जानकर 'संजयामेव परकमेज्जा' सतिपराक्रमे-दूसरे मार्ग के रहने पर साधु और साध्वी संयत-संयम शील होकर ही जाय अर्थात् दूसरे ही मार्ग से भिक्षा के लिये प्रस्थान करे जिस से संयम और आत्मा की विराधना नहीं हो ऐसा ध्यान रखना चाहिये इसी तात्पर्य से कहते हैं कि 'णो उज्जुयं गच्छेज्जा' उस सरल मार्ग से नहीं जाय क्योंकि उस घातक बलीचर्द सांढ भैसा वगैरह से युक्त होने के कारण उस सीधा रास्ता से जाने पर संयम आत्म विराधना होगी इसलिये दूरवर्ती मार्ग से ही साधु को और साध्वी को भिक्षा के लिये जाना चाहिये भले ही उस रास्ते से जाने पर देर ही क्यों न हो, किन्तु उस दूरवर्ती रास्ते से जाकर भिक्षा लेने से संयम और आत्मा की विराधना होने की संभवना रहती है ॥४८॥ ___ अब मिक्षा के लिये जाने वाले साधु और साध्वी को रास्ते में उपयोग पूर्वक विराधना यती नथी तम ध्यान २५ नये १ हेतुयी ४ छ ?--'णो उज्जय गच्छेज्जा' सेवा माया प्राणियाणा स२१ २२ते ४ नहीं ॥२६५ है सेवा पात: ५, સાંઢ, ભેંસ, વિગેરેથી યુક્ત હેવાથી એ સીધે રસ્તે થઈને જવાથી સંયમ આત્મ વિરાધના થાય છે. તેથી દરથી જનારા પણ સરળ એવા રસ્તેથી જ સાધુ કે સાળીએ ભિક્ષા લેવા માટે જવું જોઈએ એ રીતે દૂરના માર્ગથી ભિક્ષા લેવા જવાથી સંયમ અને આત્માની વિરાધના થવાની સંભાવના રહેતી નથી. આ સૂ. ૪૮ છે
હવે ભિક્ષા ગ્રહણ માટે જનાર સાધુ સાધ્વીએ રસ્તામાં ઉપગ પૂરક જ જવા વિષે સૂત્રકાર કથન કરે છે –
Astथ-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते साधु सावी 'गाहावइ कुलं जाव' स्थान।
श्री आया। सूत्र : ४